काफी प्रचार और ताम-झाम के बीच शाहरुख की बहुचर्चित और बहुप्रतीक्षित ' रा-वन ' आख़िरकार दर्शकों के सामने आ ही गई, मगर दर्शकों द्वारा इसके समक्ष अगर कोई फिल्म रखी जा सकती है तो वो सिर्फ़ ऐसी ही अति प्रचारित ' द्रोणा ' ही हो सकती है...
यह सुखद है कि अब डूबते को तिनके का सहारा के कॉन्सेप्ट में हमारे यहाँ साईंस फिक्शन को भी जगह मिल रही है मगर चमत्कारों और अवतारों पर आश्रित हमारे देश में साईंस फिक्शन भी किसी 'सुपर हीरो' के आविर्भाव तक ही सिमट कर रह जा रहे हैं, या यों कहें कि बाल कहानियों की तपस्या और वरदानों की जगह विज्ञान का कोई सिद्धांत ले ले रहा है, और विज्ञान की भूमिका वहीं तक सीमित रह जा रही है. इसके अलावे एक तथ्य जो इस फिल्म ने और प्रतिस्थापित किया है वो यह कि यहाँ के परिवेश में आप खालिस साईंस फिक्शन नहीं बना सकते, उसमें आपको ठेठ हिन्दुस्तानी इमोशंस, रिश्ते, संवेदनाएं डालनी ही होंगीं और हाँ बौलीवुड की पहचान गानों से भी इन्हें अलग नहीं किया जा सकता. इन मायनों में 'रा-वन' वाकई एक ट्रेंड सेटर बन सकती है जिसका दावा शाहरुख कर रहे हैं.
फिल्म की कहानी एक ऐसे पिता शेखर सुब्रमण्यम की है जो अपने बेटे प्रतीक की नजर में बहुत ही साधारण और डरपोक किस्म का इंसान है, वो उसमें एक सुपर हीरो की तलाश करना चाहता है. उसे स्ट्रोंग विलेन ज्यादा पसंद हैं जो किसी रुल से बंधे नहीं होते. बुराई पर हमेशा अच्छाई की ही जीत होती है यह समझाते हुए भी शेखर उसकी खुशी के लिए एक ऐसा वीडियो गेम तैयार करते हैं जिसमें विलेन (रा-वन) हीरो (जी-वन) से ज्यादा पावरफुल होता है. नतीजा रा-वन जो किसी से हार नहीं सकता, जिसे अपनी जीत हर कीमत पर चाहिए -आभासी दुनिया से वास्तविक दुनिया में आ जाता है और प्रतीक की जान का दुश्मन बन जाता है. उसकी जान बचाने में शेखर मारा जाता है, मगर अब उसकी जगह लेने के लिए विडियो गेम का ही दूसरा पात्र जी-वन आ जाता है. और सुपर हीरो जो दुनिया को बचाने की जिम्मेवारी के साथ आगे आते हैं, की तुलना में जी-वन सिर्फ प्रतीक और उसकी माँ सोनिया के इर्द-गिर्द ही अपना सुरक्षा कवच बनाये रखता है और अंत में बुराई का नाश तो होता ही है, रा-वन के सिक्वल की उम्मीद भी बचा ली जाती है.
हर कलासिक फिल्म में शायद ट्रेन दृश्य अपरिहार्य हैं, रा-वन में भी इस परंपरा का निर्वाह करते हुए मुंबई के विक्टोरिया टर्मिनल की पृष्ठभूमि में एक ट्रेन दुर्घटना संबंधी दृश्य का वाकई खुबसूरत फिल्मांकन किया गया है.
रजनीकांत की ' चिट्टी ' छवि को शायद बस अपना वरदहस्त देने के लिए इस्तेमाल किया गया है. प्रियंका और संजय दत्त की उपस्थिति भी दर्शकों को कोई विशेष उत्साहित नहीं करती. फिल्म में दृश्यता की कुछ और गुंजाईश बनाये रखने के लिए करीना का अच्छा इस्तेमाल किया गया है. शायद करीना भी एक वजह थी कि फिल्म से पहले एक छोटे एक्सीडेंट से गुजरता हुआ भी मैं इसी सोच के साथ आगे बढ़ा कि " हे बैल, वहीँ खड़ा रह - मैं ही आता हूँ..."
कुछ दृश्य रजनीकांत की 'रोबोट' से प्रेरित भी लगते हैं मगर शायद वो हमारे यहाँ के बाल्यावस्था से गुजरती विज्ञान फंतासी फिल्मों की सीमित संभावनाओं का भी नतीजा है.
जो भी हो विज्ञान की पृष्ठभूमि पर बन रही फिल्मों के प्रयासों को स्वीकार किया जाना चाहिए. हाँ इन फिल्मकारों की भी जिम्मेवारी बनती है कि वो इसके स्तर को आगे बढाएं, न कि अपनी घिसी-पिटी प्रेम कहानियों के लिए मात्र एक नए पृष्ठभूमि की तरह इस्तेमाल करें. वैसे इतना तो स्पष्ट है कि आने वाला समय कुछ अंतराल पर रह-रह कर आने वाले सुपर हीरोज का ही रहेगा और एक वो समय भी आएगा जब ' राज कॉमिक्स' की तरह हमारी फिल्में भी ' कृष-जी वन और शाकाल का कहर' जैसे शीर्षकों के साथ आयेंगीं. यह मेरा फिक्शन है. :-)
चलते-चलते फिल्म में दर्शकों को बैठाये रखने वाले चंद महत्वपूर्ण आकर्षणों में एक - छम्मकछल्लो