कभी स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अगर कभी वेदांत लौट कर आया तो वह अमेरिका में आएगा. ऐसा इसलिए कि भौतिक समृद्धि सहित सभ्यता के हर चरण के चरम पर पहुँच जाने के बाद ही उसके ह्रदय में परम लक्ष्य और शांति की लालसा जागेगी और वह इसे स्वीकृत कर सकेगा. मगर निःसंदेह आज अमेरिका ही नहीं समस्त विश्व एक आतंरिक बेचैनी, अधूरेपन से गुजर रहा है और शांति की एक शीतल छाँव का आकांक्षी है. मगर आध्यात्म के सिद्धांतों को आत्मसात करने के लिए शायद अभी पूर्णतः परिपक्व नहीं हुआ है, और तभी ऐसे में उभरता है एक ऐसा नाम जो इन सिद्धांतों की एक व्यावहारिक अभिव्यक्ति है - ' महात्मा गांधी '.
एक आम आदमी किस तरह स्वयं में आत्मिक और आंतरिक विकास सुनिश्चित कर सकता है इसका एक ऐसा व्यावहारिक उदाहरण हैं गाँधी जिन्हें कोई भी अनुकरण कर सकता है. इसीलिए आज समस्त विश्व में ही गाँधी के विचारों को समझने, आत्मसात करने या व्यवहार में उतारने के कई उदाहरण सामने आ रहे हैं. यहाँ तक कि ' मरा-मरा' कहने वाले भी 'राम-राम' कहने को बाध्य हो गए हैं, मगर बाल्मीकि बनने के लिए उनमें सच्चा आत्मिक आग्रह भी होना आवश्यक है.
आप गाँधी विरोधी भी हों मगर उनसे अछूते नहीं रह सकते. पिछले चंद महिनों में धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक लगभग हरेक स्वरूपों में ही गाँधी जी की बनाई लकीर पर चलने की कोशिश करते दिखना इस उपमहाद्वीप में गांधीजी की अपार जनस्वीकार्यता को ही दर्शाता है.
गांधीजी अपनी स्वीकार्यता, सार्वभौमिकता के लिए किसी सरकारी कर्मकांड या किसी के समर्थन अथवा आह्वान के मोहताज नहीं हैं. उनके विचारों को नए परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास कर हम उनपर उपकार नहीं करने वाले, बल्कि उन विचारों तक हमारी निर्बाध उपलब्धता सुनिश्चित कर उन्होंने आने वाली पीढ़ियों को उपकृत किया है. अब यह तो आधुनिक विचारकों (!) के टेस्ट पर निर्भर करता है कि अब वो उनमें कड़वी दवा ढूंढें या चटपटे मसाले.
आज गांधीजी के विचारों को धरती पर उतारने वाले कई युवा और संगठन निःस्वार्थ भाव से गाँवों में जाकर उनके आदर्श ग्राम के स्वप्न को धरती पर उतरने के प्रयास कर रहे हैं. गांधीजी की आत्मा और उनका आशीर्वाद उन निःस्वार्थ कर्मयोगियों के बीच ही विद्यमान है. मैं बार - बार यह कहता रहा हूँ कि अहिंसा के पुजारी एक व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी लोग उसे सकारात्मक / नकारात्मक किसी भी पक्ष में भूलते नहीं और उनके समकालीन या पूर्व अथवा बाद में बने कट्टरपंथी संगठनों से अपेक्षित संख्या में जुड़ते नहीं तो कहीं-न-कहीं उस दुबले-पतले, इकहरे आदमी में कुछ तो बात रही ही होगी. शायद तभी आज कहीं दुनिया की बड़ी कंपनिया उन्हें सबसे बेहतर सीईओ के रूप में देखती है तो सर्वशक्तिमान देश के मुखिया उनके सानिध्य की आकांक्षा रखते हैं.
आज चाहे-अनचाहे कई संगठन अपने -आपको गांधिमार्गी प्रदर्शित करने का मुखौटा लिए घूम रहे हैं, मगर विश्वास है कि हिंदुस्तान की संवेदनशील और विवेकी जनता उन मुखौटों के पीछे छुपी सच्चाई को पहचानने में पुनः अपनी सक्षमता का परिचय देगी.
आज के इस पावन अवसर पर गांधीजी के विचारों के मूर्त रूप आदरणीय लाल बहादुर शास्त्री जी को भी नमन.
25 comments:
गाँधी जी के सिधान्तों का प्रतिपादन फिर से भी हो चूका है. सुंदर आलेख.
नवरात्री कि शुभकामनायें.
अथ आमंत्रण आपको, आकर दें आशीष |
अपनी प्रस्तुति पाइए, साथ और भी बीस ||
सोमवार
चर्चा-मंच 656
http://charchamanch.blogspot.com/
गांधीजी में एक गंभीर रहस्यमयी चेतना थी लेकिन उनके रहस्यमय चिंतन में कोई हवाई महल बनाने की बात नहीं थी। वह स्वर्ग के सपने नहीं देखते थे और न भाव-समाधि में कोई ऐसी बात सुनते थे जिसे वे दूसरों को बता नहीं सकते हों। जब कभी वह यह कहते कि “ईश्वर ने मुझे कुछ करने का आदेश दिया है” तो अक्सर वह “आदेश” इतना ही होता कि किसी सामाजिक बुराई को हटाने या दो लड़ते हुए समुदायों के बीच मेल पैदा करने के लिए क्या किया जाए।
गाँधी जयंती के अवसर पर बढ़िया आलेख प्रस्तुति ......
गांधी की वैचारिकता आपको आलोड़ित करती है और यह बात मुझे ....गांधी पर ऐसे पोस्ट पढने को मिलते रहें तो क्या बात है !
an apt post on 2nd oct
He was a legend and adopting even the simplest of his principles can change us in a better way :)
Nice read !!!
गाँधी जयंती के विशेष अवसर पर सार्थक आलेख ..
bahut achchi sam samayik rachna.gandhi ji aur lalbahadur shastri ji dona hi mahan vyakti the.dono ke siddhant mujhe humesha prerit karte hain.is sundar aalekh ke liye badhaai.aapko follow karliya hai.kya aap bhi mere blog par aana pasand karenge.intjaar rahega.
किस गाँधी की बात कर रहे है आप वही जिसने साउथ-अफ्रीका में प्रवास के समय वहाँ की ट्रांसवॉल सरकार ने भारतीयों को परमिट लेकर ही रहने का आदेश दिया, जिस पर गाँधी जी समेत सभी भारतीयों ने विरोध किया. जब यह आंदोलन पूरे ज़ोर पर था तो एक दिन गाँधी जी अचानक चुपके से जनरल स्मटस के पास जाकर अपनी दसों अंगुलियों की छाप देकर यह परमिट प्राप्त कर लिया. सभी ने गाँधी जी इस आचरण की भर्तसना की. या आप उस गाँधी की बात कर रहे है जिसने विदेशी का बहिष्कार और स्वदेशी को अपनाने की प्रेरणा दी, जिससे प्रभावित होकर लाखों भारतीयों ने अपने-अपने विदेशी वस्तुओं की होली जलाई, किंतु गाँधी जी अपनी विदेशी घड़ी का मोह न त्याग सके और अंत तक उसे अपने पास रखा. या फिर आप उन गाँधी के बारे में बोल रहे है जो अँग्रेज़ी पढ़े लिखे बुद्धिजीविओं को ही भारत के गुलाम होने का कारण मानते रहे, किंतु अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में हैरो एवं कैंब्रिज में पढ़े नेहरू को राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने में अपने लोभ का संवरण न कर सके. इसी तरह गाँधी जी अपने को लोकतंत्र का पुरोधा मानते रहे किंतु सन 1938 कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में बहुमत से जीते हुए सुभाष चंद्र बोस को स्वीकार नहीं कर सके. या आप उस महात्मा की बात कर रहे है जिसने भगत सिंह जी की फंसी का विरोध नहीं किया क्यूंकि भगत सिंह जी हिंसा के मार्ग पर थे और महात्मा जी हिंसा के पछधर नहीं थे. किन्तु उसी गाँधी ने भारत के नौजवानों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया ताकि भारत के नौजवान अंग्रेजो की तरफ से पहले और दुसरे विश्व युद्ध में लड़ सके. ये कैसी अहिंसा है जिसमे देश के लिए लड़ने वाले भगत सिंह का साथ तो गाँधी ने नहीं दिया किन्तु युद्ध में अंग्रेजो का साथ महात्मा ने दिया. बाकी गाँधी में देश की आजादी में बोहोत बड़ा योगदान दिया है ये बात तो कई जगह पढ़ी है किन्तु आज तक समझ नहीं पाया गांधी ने आखिर आजादी के लिए किया क्या था.
बहुत सुन्दर ! शानदार प्रस्तुती!
दुर्गा पूजा पर आपको ढेर सारी बधाइयाँ और शुभकामनायें !
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
Gandhi ji aur shashti ji aise aadarsh vyaktitva they jinka anukaran kiya ja sakta hai, lekin agar ye anukaran soch ke saath sthaapit ho to ati uttam hai. gandhi ji ke siddhant ek aadarsh jivan ki vyaakhya hai. nihsandeh unke dikhaaye raah par chalna itna aasan nahin, parantu agar koshish ki jaaye to desh aur duniya ki adhikaansh samasya khatm ho jaaye. gandhi ji aur shashtri ji ko naman. saarthak lekh ke liye badhai.
gandhiji ka naam hindustan ke patal per swarnaksharon se likha gaya hai...pura vishwa unhe maanta hai..gandhi ki kuch kamjoriyan yah pratipadit karti hain ki wo bhi ek insaan the..lekin unki buraiyan naganya thin..unhone azadi ke liye jo kiya uski koin misal nahi hai
श्रीमान हमनामी उर्फ अभिषेक जी,
गांधीजी को लेकर आपके ज्वलंत विचारों ने मुझे इतना तो आश्वस्त किया ही है कि मेरा यह विचार कि उन्हें समर्थन न देने वाले भी उनके प्रति उत्सुक रहते हैं - को सुदृढ़ ही किया है.
मैंने पहले भी कहा है कि जिस आदमी को मरे हुए साठ साल हो गए, जिसने देश के लिए कुछ नहीं किया तो उसे भुला क्यों नहीं देते, कम्प्लीटली रिजेक्ट क्यों नहीं कर देते ? उसकी जगह कई 'राष्ट्रसेवक' संगठन हैं, उनके विचारों को आगे बढाइये. भला उस कृशकाय काया ने कितनी जगह छेक रखी है कि हर व्यक्ति और विचारधारा को उसे सरकाकर ही अपनी जगह बनानी पड़ती है !!! क्या इसके पीछे भी कोई राजनीतिक प्रभाव ही है, अरे उन राजनीतिज्ञों ने तो इस आदमी का साथ उसके जीते-जी ही छोड़ दिया था, और यह कभी उनपर निर्भर रहा ही नहीं. नोट पर कल किसी 'राष्ट्रवादी' का चेहरा चिपकवा दिया गया तो क्या जनता गाँधी को भूल जायेगी !!!
जाइये पहले इस जनमर्ज की दवा ढूँढकर लाइए और अपनी पहचान भी क्योंकि गांधीजी ने अपने आप को कभी छुपाया नहीं अपनी कमियों के साथ भी, और आज जो रहस्योद्घाटन (!) के दावे हो रहे हैं वो उन्ही के सावर्जनिक किये दस्तावेजों के ही आधार पर ही हो रहे हैं. और जो बात किताबों में छापने नहीं दी गई वही इतिहास है तो माफ कीजिये किसी 'चंडूखाने की गप' भी इतिहास का पाठ नहीं हो सकती.....
@ अभिषेक मिश्र,
अरे आप तो गुस्सा हो गए हमारे मन में कुछ शंकाए है उनके निवारण के लिए यहाँ कमेन्ट किया था नहीं पता था यहाँ भी कोई गांधी का अंध भक्त है. वैसे एक बात सही कही है आपने, इंडिया का इतिहार चंडूखाने की गप्प ही है और वो चंडू नेहरू था. जिसने नाथूराम की जेल में लिखी किताब को लोगो तक पोहोचने ही नहीं दिया. इंडिया के इतिहास में अंग्रेजो का बोहोत बड़ा प्रभाव था है और रहेगा. गाँधी जी अंग्रेजो का चमचा था इसीलिए उसको अंग्रेजो में महात्मा बनाया. जैसी की आज का मिडिया सोनिया को त्याग की देवी बनाने में तुला रहता है. आपको नहीं लगता कारगिल में जिसने अपने बेटे, पति, भाई को खोया है वो त्याग की देवी है या ये सोनिया. वैसे सोनिया ने एक कुर्सी का त्याग कर दिया और बन गयी त्याग की देवी. वैसे ही गाँधी ने अंग्रेजो की चमचागिरी करी और बन गया महात्मा. गाँधी का कहना था ना की अगर कोई एक गाल पर मारे तो उसके सामने दूजा गाल कर दो, क्या आप कोई ऐसी घटना बता सकते है जब ऐसा हुआ को की कभी अंग्रेजो ने गाँधी के एक गाल में मारा हो और गाँधी ने दूजा गाल किया हो. क्या ये रूल केवल दूजो के लिए था गाँधी के लिए नहीं था. गाँधी की इन्ही हरकतों के कारण ना जाने कितनो को डंडे पड़े, जेल में प्रताड़ित किया गया, लाला लाजपत राय जैसे देश भक्त को अंग्रेजो ने मर डाला किन्तु गाँधी को कभी किसी ने एक थप्पड़ तक नहीं मारा ऐसा क्यूँ. इसका तो बस एक ही कारन हो सकता है गाँधी और अंग्रेज दोनों भारत के लोगो को बेवक़ूफ़ बना रहे थे और गाँधी के जाने के बाद अंग्रेजो के द्वारा बनाये इस महात्मा का पूरा दोहन नेहरू ने किया और आज भी कांग्रेसी कर रहे है. आँखे बंद करके गाँधी के भजन करने की बजायअगर आप मेरी शंकाओ का निवारण करे तो जादा अच्छा रहेगा.
@ अभिषेक जी
अगर आपको ऐसा प्रतीत हो रहो हो कि मैं नाराज हूँ तो मुझे खेद है. और नाराजगी के सावर्जनिक 'प्रकटीकरण' का विशेषाधिकार तो अब शायद एक वर्ग विशेष को ही है !
और रही बात अंधभक्ति की तो यह गांधीजी की विचारधारा के ही विपरीत है. उन्होंने खुद किसी 'गांधीवाद' जैसी अवधारणा को नकारा था. भावनात्मक मुद्दों को उभारने वाली एक पुस्तिका ही कोई 'गीता' या 'बाइबल' नहीं हो सकती.
गांधीजी और भगत सिंह में जो भेद था नहीं उसे एक विचारधारा अपनी जगह बनाने के लिए बढ़ा रही है. हिंदुस्तान की तमाम जनता एक साथ भगत सिंह नहीं बन सकती मगर धीरे-धीरे गाँधी बन सकती है. इसे पिछले चंद महिनों के उदाहरण से आज भी समझा जा सकता है. इस वैचारिक राजनीति से अलग जरा समय निकाल कर एक व्यक्ति को समझने के लिए ही गाँधी को पढ़िए.
मैंने 'गोडसे' को भी पढ़ा है और 'गाँधी' को भी. और तब अपने विश्लेषण के आधार पर गाँधी के पक्ष में हूँ. आपको दूसरी विचारधारा आकर्षित करती है तो इसमें कोई अस्वाभाविकता नहीं. मगर शायद आपके इतिहास में भारतीयता की बात बताई गई होगी तो उसमें विचारों को विचारों से परिवर्तन या जीतने के उदाहरण होंगे शायद, समस्या तब उठती है जब विचारों को बल या गलतबयानी के द्वारा दबाया जाता है, जैसा कि आज भी आप सारे वैश्विक शक्तियों के सन्दर्भ में देख रहे होंगे.
अनुरोध है कि कभी समय निकल कर थोडा राजनीतिज्ञ नहीं सिर्फ व्यक्ति गाँधी को पढ़ें. शुरुआत संभव हो तो 'हिंद स्वराज' से करें. इसमें आपको गाँधी जी के विचारों के विकसित होने की झलक मिलेगी. शुभकामनाएं.
@ अभिषेक मिश्र जी,
अपनी पैदायिस से लगभग 25 साल की आयु तक गांधी के बारे में जो भी पढ़ा उसमे उनको महात्मा ही बताया गया था. किन्तु उसके बाद जब उनके खिलाफ पढ़ा और तार्किक रूप से समझने की कोसिस की तो मुझे यकीन हो गया गाँधी महात्मा हो ही नहीं सकता है ये तो केवल अंग्रेज, नेहरू, कांग्रेसियों और खुद गाँधी की चाल थी और है लोगो को बेवक़ूफ़ बनाने की. मेरे दोनों कमेंट्स में मैंने इतनी शंकाए बताई और प्रशन किये उनका कोई उत्तर देने की बजाय आप मुझे गाँधी को पढने की सलाह दे रहे है. आपको क्या लगता है ये जो मेरी शंकाए है और जो प्रशन मैंने किये है ये गाँधी के बारे में पढ़े बिना किये है. आप कह रहे है राजनीती को छोड़ के गाँधी के बारे में पढ़े, आपने नहीं बताया किस राजनेता ने गाँधी के खिलाफ कोई बयान या कमेन्ट दिया हो. चाहे कोई भी नीता हो किसी भी पार्टी का हो हो गाँधी के गुणगान ही करता है. आपने कहा पूरा भारत भगत सिंह नहीं बन सकता किन्तु पूरा भारत गाँधी बन सकता है आपको नहीं लगता गाँधी खुद जिन्दा रहते हुए एक और गाँधी नहीं बना पाया फिर उसके मरने के 60-65 साल बाद पूरा भारत गाँधी कैसे बनेगा. कुछ प्रैक्टिकल बात करिए ना की किताबी बाते करिए. ना पूरा भारत भगत सिंह बन सकता है और ना ही पूरा भारत गाँधी ही बन सकता है. भगत सिंह जैसी महानता हर किसी में होती तो भारत शायद दुनिया में सबसे आगे होता और गांधी जैसी नीचता अगर हर किसी में होती तो शायद भारत का नाम दुनिया के नक्से से मिट गया होता. जिसने जिन्दा रहते हुए खुद को महात्मा कहलवाना शुरू करवा दिया वो महान कैसे हो सकता है समझ नहीं आता.
अभिषेक जी,
अब जब आपने अपने तर्कों और विश्लेषण के आधार पर गाँधी जी की छवि गढ़ ही ली है, तो मेरे विचार उसपर शायद कोई प्रभाव न छोड़ पायें. हाँ उम्मीद करता हूँ कि आप अपनी उर्जा सिर्फ गाँधी विरोध में अपव्यय करने की जगह भगत सिंह की तरह उसका समाज के लिए सकारात्मक प्रयोग करेंगे. वो या सुभाष जी भी चाहते तो गाँधी विरोध करते हुए अपनी जिंदगी बिता देते, मगर उन्होंने अपनी धारणाओं के अनुरूप अपने प्रयास जारी रखे. घृणित नेताओं की तरह दोषारोपण के खेल में न उलझते हुए हम -आप जैसे युवा अपने-अपने अनुसार वर्तमान को बेहतर बनाने में योगदान दें तो अपने आदर्शों के प्रति हमारी यही श्रद्धांजलि होगी.
जरुरी कहा जाय या मज़बूरी ..सबों को गाँधी-शास्त्री जी को मानना ही पड़ेगा . बढ़िया पोस्ट.शुभकामनायें..
@ अभिषेक मिश्र,
जब आप ये समझ चुके है की आप मुझे कोई ऐसी तार्किक बात नहीं बता सकते है जिससे गाँधी के प्रति मेरी सोच में परिवर्तन आये तो बेकार में आप अपनी उर्जा मेरे कमेंट्स का उत्तर देने में क्यूँ बर्बाद कर रहे है और रही भगत सिंह या सुभाष चन्द्र बोस बनाने की बात तो मैं पहले ही बोल चूका हूँ ना कोई गाँधी बन सकता है और ना भगत सिंह और ना ही सुभाष चन्द्र. वैसे भी भगत सिंह जी और सुभाष चन्द्र जी बोहोत ही महान व्यक्ति थे. उनके जैसा बनाने का दम आज के दौर के किसी हिन्दुस्तानी में नहीं है. और रही बात विरोध में उर्जा नष्ट करने की तो अगर गलत बात के विरोध करने में उर्जा लगती है तो उसको उर्जा का नष्ट होना नहीं व्यय होना कहा जाना चाहिए. अगर आपकी बात मानके गलत बातो का विरोध करना ही छोड़ दिया जायेगा तो गलती में सुधार कैसे होगा. और रही देश को सुधारने में अपना अपना योगदान देने की बात, तो भाई एक आम आदमी अपना घर देखे या देश को. देश को सम्हालने के लिए आम आदमी सरकार चुनता है वही सरकार गाँधी के मार्ग पर चल कर देश के और तुकडे करने में लगी रहे और आम आदमी अगर उसका विरोध करे तो आप जैसे बुद्धजीवी उस आम आदमी को ही विरोध ना करने की निति समझाते फिरते है.
Aapne yah sahi likha hai ki Gandhi ke sidhyanton ko bhale koi nakarne ki koshish kare lekin koi usse achhoota nahi rah sakta hai. badhiya jankari. vijay dashmi ki hardik subhkamna.
अभिषेक जी,
मैंने विरोध करने से तो आपको मना नहीं किया. भगवान की दया से लोकतंत्र है, अपने विचारों को खुलकर अभिव्यक्त करते रहें. मैंने तो सिर्फ़ इतना आग्रह किया कि आप अपनी विचारधारा के अनुरूप ही अपने परिवेश में परिवर्तन लाने हेतु प्रयास करते रहैं. सिर्फ़ किसी एक व्यक्ति को अगर उसने 'गलती' कर भी दी हो तो कोसते रहने से तो भला होगा नहीं ! अब उसमें क्या सुधार किया जा सकता है उस ओर प्रयास करें. उदाहरण के लिए आपके गुरु गोलवलकर जी भी हैं. सहमति-असहमति अपनी जगह मगर किसी को कोसने मात्र से आप अपनी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हो सकते.
आपने तो पढ़ा ही है गांधीजी को तो जानते ही होंगे कि वो संसद और सरकार की अवधारणा में विश्वास नहीं रखते थे. पार्लियामेंट सिस्टम को वो एक दोष मानते थे और इसीलिए 'ग्राम स्वराज' से 'हिंद स्वराज' का स्वप्न देखते थे. हाल ही में आये असगर वजाहत के एक नाटक में गांधीजी को उनके इन सिद्धांतों के कारण आजादी के बाद उन्ही के शिष्यों द्वारा ही जेल भेज दिए जाने की कल्पना की गई है, जिससे मैं भी सहमत हूँ.
मगर इसका मतलब यह नहीं कि लोग अपने विचारों को अमल में लाने के प्रयास छोड़ दें !!!
और रही बात आपके प्रत्युत्तर देने की - तो संवादहीनता या वन वे संवाद गाँधीवादी विचारधारा में स्थान नहीं रखता, जहाँ रखता है आप जानते ही होंगे. तो मेरे ब्लॉग पर आपका हर विचार के साथ हमेशा स्वागत रहेगा...
आपको एवं आपके परिवार को दशहरे की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें !
@ अभिषेक मिश्र,
अब विरोध जताने के लिए मैं बन्दूक लेके गांधी के हर समर्थक का खून करने तो नहीं निकल सकता हूँ और ना ही कुदाल लेके गाँधी की हर मूर्ति को तोड़ने के लिए जा सकता हूँ. ना ही मैं कोई लेखक हूँ जो गांधी के विरोध में ब्लॉग लिखना शुरू कर दू जैसा की आप उनके समर्थन में लिख रहे है. सॉफ्टवेर में जॉब करता हूँ तो गाँधी का विरोघ इसी तरह कमेन्ट देके कर सकता हूँ अब अगर आपको ये विरोध कोसना लगता है तो मैं कुछ नहीं कर सकता. और रहा आपके एस कमेन्ट में गाँधी की विचारधारा की बात तो वो आपने कुछ जादा ही साहित्यिक भान्षा में लिखा है मैं बोहोत ही साधारण इन्सान हूँ जिसको नोर्मल बोलचाल की हिंदी आती है लिट्रेचर हिंदी में बोहोत कमजोर हूँ. और आपने जहाँ तहां बोहोत ही खतरनाक हिंदी लिखी है. किन्तु ये बात जरुर है गाँधी की विचारधारा कुछ भी रही हो उसका सिद्धांत बस यही था की अंग्रेजो की चमचागिरी करो और खुद को लोगो से महात्मा कहलवाओ. वैसे मेरे गुरु गोलवकर जी कौन है ?? ऐसा कोई गुरु मेरा नहीं है. हाँ मैंने गाँधी के बारे में पढ़ा है मगर ये कहना गलत है मैं उसको जनता हूँ क्यूंकि उसके द्वारा की गयी और कही गयी बोहोत सी बाते मेरी समझ से बहार है. जिनमे से कुछ का जिक्र मैंने पहले के कमेंट्स में किया है.
@ अभिषेक जी,
मैं भी कोई प्रोफेशनल लेखक नहीं हूँ, जॉब करता हूँ. गांधीजी के विचारों से सहमत हूँ, इसलिए उनपर मेरा एक और ब्लॉग भी है, आप प्रोफाइल से देख सकते हैं.
कहना बस यही चाहता हूँ कि जिस विचार से मैं सहमत हूँ उसके लिए अपनी सुलभता से contribute कर रहा हूँ. जो विचार आपके हैं आप उनके लिए अपनी तरह से योगदान कीजिये चाहे आंशिक रूप में ही सही (कमेन्ट भी कह सकते हैं). मैं तो श्रीराम जी की सेना में गिलहरी के योगदान को ही सबसे प्रेरक मानता हूँ.
जो सज्जन या संगठन अपने विचारों के अनुरूप लगें उन्हें सहयोग और समर्थन दें तथा जिनसे असहमत हों उनसे अपनी असहमति जताते रहें. हाँ बस आपको अपनी अंतरात्मा पर विश्वास होना चाहिए कि आप सही कर रहे हैं और सत्य आपके साथ है.
मैं अपनी तरफ से मात्र यही करने का प्रयास कर रहा हूँ इन ब्लौग्स के द्वारा. आपके लिए भी शुभकामनाएं.
जब मैं निराश होता हूं तब मैं याद करता हूं कि हालांकि इतिहास सत्य का मार्ग होता है किंतु प्रेम इसे सदैव जीत लेता है। यहां अत्याचारी और हतयारे भी हुए हैं और कुछ समय के लिए वे अपराजय लगते थे किंतु अंत में उनका पतन ही होता है -इसका सदैव विचार करें।
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