Tuesday, August 21, 2012

अविश्वास के ड्रैगन के पंजों में भारतीय समरसता...



कुछ माह पूर्व हमारे एक सशक्त पड़ोसी देश से जुड़ी एक खबर चर्चा में थी, जिसमें एक रिसर्च ग्रुप ने अपने शोध अध्ययन से निष्कर्ष निकाला था कि भारत सांस्कृतिक रूप से अत्यंत विविधतापूर्ण देश है, अतः आने वाले समय में इसके इसी आधार पर कई भागों में विभक्त होने की संभावना काफी प्रबल है...।  अब यह संभावना ही मात्र इंगित की गई थी अथवा इस दिशा में प्रयास करने की भी नीति झलक रही थी – यह कहना सहज तो नहीं; मगर हाल ही में देश के पूर्वोत्तर सहित कई भागों में घटी हिंसक घटनाओं को इस परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है।

महज सोशल नेटवर्किंग साइट्स, या एसएमएस या एमएमएस के प्रभाव में अनगिनत लोगों का पलायन या हिंसा सिर्फ बाहरी षड्यंत्र ही नहीं मनोवैज्ञानिक रूप से आंतरिक अविश्वास भी दर्शाता है – अपने देशवासियों के प्रति भी। और निःसंदेह यह अविश्वास अपने ही लोकतंत्र पर आस्था और विश्वास से कहीं मजबूत हो गया है।

आजादी के पहले से ही हमारे राष्ट्रनिर्माताओं ने देश को एकसूत्र में पिरोने के जो प्रयास किए थे वो अब मात्र प्राथमिक कक्षाओं की पाठ्यपुस्तकों के अध्यायों और सतही शब्दों तक ही सीमित रह गए हैं।

आज जरूरत जातीय अथवा प्रांतीय विविधता के नाम पर कुछ राज्यों को शेष भारत से पृथक महत्व देने भर की नहीं, बल्कि सभी को समानता का बोध कराने की है। हिन्दी जैसी सर्वसुगम भाषा का प्रसार, आबादी का समानुपातिक सम्मिश्रण आदि प्रबल राजनीतिक इच्छाशक्ति के आधार पर सुनीश्चित किए जाने चाहिए।

अफवाहों के सूत्र भले पाकिस्तान से मिलने के संकेत मिले हों, मगर उसके प्यादों की चाल कौन तय कर रहा है इसे भी समझना होगा। बार-बार हर जाँच का घुमफिरकर पाकिस्तान पर ही केंद्रित रह जाना इसके मूल नीतिकारों को आवरण प्रदान कर सकता है।  समस्या के मूल पर अभी और समय रहते ठोस प्रहार करने की जरूरत है, वरना भारत की ऐतिहासिक – सांस्कृतिक समरसता की विरासत हमारी आँखों के सामने ही ध्वस्त हो जाएगी..... 

3 comments:

Vaanbhatt said...

बिलकुल सही कहा...इतने वर्षों में हम अपने लोगों को ही ये विश्वास दिला पाए की सरकार हमारे लिए काम कर रही है...हजारों साल की गुलामी ने हमें नपुंसक बना दिया है...

Shikha Kaushik said...

YOUR VIEW IS VERY RIGHT .WE SHOULD BE MORE CAREFUL ABOUT THIS PROBLEM .

Ranbir S Phaugat said...

प्रिय अभिषेक, तुम्हारी चिंता वाजिब है. देश के युवाओं में आत्मविश्वास के अलावा विवेक की कमी भी पुणे और बेंगलुरु में दहशत प्रसार के बाद की घटनाओं से सिद्ध होती है. कानून और व्यवस्था कायम रखना दो चुनौतियों का सामना करने जैसी बात है: एक, नाजुक वक़्त में और दूसरा सामान्य वक़्त पर. यदि देश में हमारे लोगों के मोबाइलों पर प्राप्त संदेशों से दहशत का सृजन हो सकता है और इसमें हमारे लोग विवेक को छोड़ कर वैसा ही व्यवहार करने लगते हैं जैसा कि 'किसी' कि इच्छा रही होगो, तो हम अपने से या अपने लोगों से क्राइसिस के असली दौर में कैसी और क्या अपेक्षा कर सकते हैं? लेकिन पिछला अनुभव बताता ही हम लोग क्राइसिस को झेल तो लेते हैं लें उसको टालने या रोकने के लिये उपयुक्त बौद्धिक तैय्यारी और कभी नहीं कर पाते. अंग्रेज़ी भाषा में इसे कम्प्लायसेंसी कहते हैं.

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