त्रिमूर्ति, करोड़ों देवी-देवताओं और अवतारों की इस धरती पर राम, कृष्ण और
शिव का एक अलग ही स्थान रहा है. अपने ऐतिहासिक महापुरुषों, राजाओं के
बारे में हमारी स्मृतियाँ चाहे कितनी भी क्षीण हों इन प्रतीक पुरुषों को
इस देश की करोड़ों जनता पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी स्मृतियों में सहेजती आई है तो
इसके पीछे इनका व्यक्तित्व और वो आदर्श भी हैं जो इस देश की संस्कृति के
आधार हैं. आज अपने प्रतीकों के छिद्रान्वेषण का आधुनकितामय प्रचलन जरुर
बढ़ा है, इस बारे में फिर कभी; मगर आज इतना तो जरुर कि शिव इन अन्य
प्रतीकों से इस मामले में जरुर थोड़े ज्यादा सौभाग्यशाली माने जायेंगे कि
हम इंसानों ने अपनी तमाम बौद्धिकता के साथ भी इनके चरित्र में कोई ऐसी
विसंगति ढूँढने में सफलता नहीं पाई जितनी हम राम-कृष्ण आदि में ढूंढ अपने
प्रगतिशील होने का आत्मसुख तलाशते हैं ! अपने परिवार के साथ वैभव से अलग,
पर्वतों की चोटी पर विराजमान, संसार से अलग मगर जब सृष्टि को जरुरत पड़े
तो गंगा को बाँधने से लेकर गरल पीने को भी तत्पर और इस मंथन के परिणामों
से पूर्णतः अनासक्त भी ! शायद तभी जब हमारे प्राचीन ऋषियों को भारत को एक
सूत्र में पिरोने का विचार आया तो प्रतीक शिव को ही बनाया. कश्मीर से
कन्याकुमारी..., 12 ज्योतिर्लिंग और इसके बाद भी और स्पष्टता के लिए सती
से जुड़े 52 शक्तिपीठ भी. और अपने विवाह की बारात भी निकाली तो ऐसी जिसमें
कृत्रिमता, और रस्म अदायगी करने वाले भद्र बाराती ही नहीं बल्कि तमाम
भूत-प्रेत, पिशाच मानी जाने वाली नंग-धड़ंगों की टोली- जो जताती है कि
समाज के तमाम वंचित, पिछड़े तबकों को भी मस्ती के साथ लेकर चलने वाले हैं
शिव. यह काम और कोई अवतार करता नहीं दिख पाता. शिव ऐसा कर पाते हैं तो
शायद इसलिए कि वो भारत की मौलिक आत्मा हैं, मूल जीवनशैली -
जनजातीय/ट्राईबल शैली जो जीवन को आडंबर में नहीं बल्कि संपूर्णता में
जीना सिखाती है. इस नजरिये से शिव को देखें तो उनके विराट व्यक्तित्व के
कई राज समझ पाएंगे जो अन्य प्रतीक पुरुषों में नहीं दिखते... सभी को
सृष्टि के इस सबसे उल्लासमय उत्सव की बधाई.....
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