Monday, August 10, 2020

एक भूला दिया गया शहज़ादा- दारा शिकोह

दारा शिकोह मुग़ल सल्तनत का एक शहज़ादा जिसे शाहज़हां ने अपना उत्तराधिकारी माना था, जो हिंदू और मुस्लिम दोनों ही धाराओं के दार्शनिक पहलुओं को जोड़ने  को प्रयासरत था। इसी कड़ी में उसने उपनिषदों का अनुवाद किया, वेदांत और सूफ़ीवाद का तुलनात्मक अध्ययन किया और कई पुस्तकें लिखीं। कहते हैं वह अपने एक हाथ में उपनिषद और दूसरे हाथ में पवित्र कुरान रखते थे। वे भगवान श्रीराम के नाम की अंगुठी पहनते थे तो नमाज़ भी पढ़ते थे।शायद यही प्रतिभा, विद्वता और उदारता उसकी सबसे बड़ी दुश्मन हो गई और शाहजहाँ के बीमार पड़ने पर औरंगजेब और मुराद ने दारा के काफ़ि़र होने का प्रचार शुरू कर दिया। राजगद्दी के लिए युद्ध हुए और अंत में  को दिल्ली में औरंगजेब ने उसकी हत्या करवा दी। 

इससे पहले उसका सार्वजनिक अपमान किया गया जिसका काफी लोमहर्षक वर्णन फ़्रेंच इतिहासकार फ़्राँसुआ बर्नियर ने अपनी किताब 'ट्रेवल्स इन द मुग़ल इंडिया' में किया है।

बर्नियर के अनुसार, "दारा को एक छोटी हथिनी की पीठ पर बिना ढ़के हुए हौदे पर बैठाया गया। उनके पीछे एक दूसरे हाथी पर उनका 14 साल का बेटा सिफ़िर शिकोह सवार था। उनके ठीक पीछे नंगी तलवार लिए औरंगज़ेब का गुलाम नज़रबेग चल रहा था। उसको आदेश थे कि अगर दारा भागने की कोशिश करें या उन्हें बचाने की कोशिश हो तो तुरंत उनका सिर धड़ से अलग कर दिया जाए। दुनिया के सबसे अमीर राज परिवार का वारिस फटे- हाल कपड़ों में अपनी ही जनता के सामने बेइज़्ज़त हो रहा था। उसके सिर पर एक बदरंग साफ़ा बंधा हुआ था और उसकी गर्दन में न तो कोई आभूषण थे और न ही कोई जवाहरात... 

...दारा के पैर ज़ंजीरों में बंधे हुए थे, लेकिन उनके हाथ आज़ाद थे। अगस्त की चिलचिलाती धूप में उसे इस वेष में दिल्ली की उन सड़कों पर घुमाया गया जहाँ कभी उसकी तूती बोला करती थी। इस दौरान उसने एक क्षण के लिए भी अपनी आँखें ऊपर नहीं उठाईं और कुचली हुई पेड़ की टहनी की तरह बैठा रहा। उसकी इस हालत को देख कर दोनों तरफ़ खड़े लोगों की आँखें भर आईं।"

इन्हीं राहों ने ऐसा ही मंजर फिर से देखा जब 30 अगस्त 1659 को उसकी हत्या करवाने के बाद औरंगजेब ने आदेश दिया कि दारा के सिर से अलग हुए धड़ को हाथी पर रख कर एक बार फिर दिल्ली के उन्हीं रास्तों पर घुमाया जाए जहाँ उनकी पहली बार परेड कराई गई थी। दिल्ली के लोग खौफ़ भरी आंखों से इस दृश्य को देखते हैं। दारा के इस कटे हुए धड़ को हुमायूँ के मकबरे के प्रांगण में दफ़ना दिया जाता है।"

मुग़ल सल्तनत के इस विलक्षण शहज़ादे की दुःखद दास्तान यहीं ख़त्म नहीं होती। इटालियन इतिहासकार निकोलाओ मनूची ने अपनी किताब स्टोरिया दो मोगोर में लिखा, "आलमगीर ने अपने लिए काम करने वाले एतबार ख़ाँ को शाहजहाँ को पत्र भेजने की ज़िम्मेदारी दी। उस पत्र के लिफ़ाफ़े पर लिखा हुआ था कि औरंगज़ेब, आपका बेटा, आपकी ख़िदमत में इस तश्तरी को भेज रहा है, जिसे देख कर उसे आप कभी नहीं भूल पाएंगे। उस पत्र को पा कर तब तक बूढ़े हो चले शाहजहाँ बोले, भला हो ख़ुदा का कि मेरा बेटा अब तक मुझे याद करता है। उसी वक्त उनके सामने एक ढ़की हुई तश्तरी पेश की गई। जब शाहजहाँ ने उसका ढक्कन हटाया तो उनकी चीख़ निकल गई, क्योंकि तश्तरी में उनके सबसे बड़े बेटे दारा का कटा हुआ सर रखा हुआ था।"

शाहजहाँ को इससे ज़बर्दस्त आघात पहुंचा। 

दारा शिकोह के दुर्भाग्य की कहानी यहीं ख़त्म नहीं हुई। 

दारा का बाकी का धड़ तो हुमायूँ के मकबरे में दफ़नाया गया लेकिन औरंगज़ेब के हुक्म पर दारा के सिर को ताज महल के प्राँगड़ में गाड़ा गया। उसका मानना था कि जब भी शाहजहाँ की नज़र अपनी बेगम के मक़बरे पर जाएंगी, उन्हें ख़्याल आएगा कि उनके सबसे बड़े बेटे का सर भी वहींं पड़ा है।"

जनता में आक्रोश और बग़ावत की संभावना को खत्म करने के लिए उसकी क़ब्र पर कोई ऐसा चिह्न भी नहीं छोड़ा गया कि उसे पहचाना जा सके। 

लेकिन क्या भारत के भविष्य को एक अलग रुख दे सकने की संभावना वाले व्यक्तित्व का अस्तित्व सदा यूँ ही गुमनामी में खो जाने वाला था! इसके बाद कभी उसे भी देखते हैं...

4 comments:

अभिषेक मिश्र said...

धन्यवाद

Rakesh said...

बढ़िया लेख

अभिषेक मिश्र said...

धन्यवाद

Swarajya karun said...

इतिहास के भूले -बिसरे व्यक्तित्व और भूले -बिसरे प्रसंग पर अत्यंत ज्ञानवर्धक आलेख। हार्दिक आभार । श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ।

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