वर्षों पहले बॉलीवुड के सभी दिग्गज कलाकार वीडियो पायरेसी के खिलाफ एकजुट हो सड़कों पर उतरे थे। कुछ बदलाव आए थे, कोई गाना या सीन काटकर आता था वीडियो में ताकि शौकीन दर्शक सिनेमाघरों में ही जाकर देखें। लेकिन यह समस्या तकनीक में बदलाव के साथ मात्र अपना स्वरूप ही बदलती जा रही है। फिर भी बॉलीवुड के पास इसके आर्थिक प्रभावों से उबरने के कुछ विकल्प हैं भी, लेकिन हिंदी लेखकों के विषय में क्या कहा जा सकता है!
यूँ तो नई वाली हिंदी और इसके लेखकों से व्यक्तिगत खुन्नस के कारण उनकी किताबें पढ़ना छोड़ रखा है। सभी नामवर और राजेंद्र यादव हैं तो वाकई उनके वहां पहुंचने के बाद उनकी किसी रचना की याद रही या जरूरत पड़ी तो देखूंगा। हिंदुस्तान की सड़कों पर लगभग सभी बड़े लेखकों की रचनाएं कम मूल्य पर मिल जाती हैं। अंग्रेजी के लेखक तो अपनी आय से इस नुकसान को बर्दाश्त कर सकते हैं पावलो कोएल्हो ने तो इसे अपने लिए सम्मान बताया था। पर ये नए हिंदी लेखक न तो इतने महान हैं, न समृद्ध, न उदार ही। ऐसे में बुक पायरेसी जो छपे रूप से होते, ऑनलाइन और पीडीएफ में आसानी से उपलब्ध होती जा रही है, इसके विषय में उन्हें गंभीरता से सोचना चाहिए।
पुरानी दुर्लभ किताबों को जमा करने का शौक मुझे भी है। ऑनलाइन और पीडीएफ विकल्प मुझे इसमें सहायता भी करते हैं। लेकिन शुक्रवार को रिलीज हुई फ़िल्म की तरह कल प्रकाशित हुई कोई किताब आज पीडीएफ में आ जाये तो यह ठीक नहीं लगता। या फिर इन माध्यमों से भी लेखक को लाभांश मिलने की स्थिति बननी चाहिए।
मुफ़्त में कोई किताब मिल जाये तो कई गुना पैसे दे उसकी किताब कोई क्यों खरीदेगा! ऐसे में किताब प्रकाशित देखने का शौक भले पूरा हो जाये, बिक्री के आंकड़ों की संतुष्टि कैसे मिलेगी!
अपने लिए मुझे तो लगता है लेख वगैरह लिखना-छपवाना ही ठीक है। जो कुछ पाठक पढ़ लें वही संतुष्टि रहेगी। वैसे भी साहित्यिक गैंगवार के युग में निर्गुट वालों को तो कोई अवार्ड-सवार्ड भी नहीं मिलना कि कोई लेखक उसी से मुग्ध हो ले...
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