शीर्षक का डायलॉग मेरा नहीं भई अपने ही RK बैनर तले पहली ही फ़िल्म से निर्देशक के रूप में पारी शुरू करने वाले राज कपूर साहब का है। 2 जून को उनकी पुण्यतिथि पर 'आग' देखी। दर्शकों की कुल आयु के समकक्ष पुरानी यह फ़िल्म भविष्य में शो मैन बनने वाले नौजवान के आरंभिक सफ़र के आगाज़ को भी दर्शाती है।
आज भी कोई आम
युवा अपनी प्रेरणा या कल्पना को किसी रचना के माध्यम से सामने लाना चाहता है तो
कविता, कहानी आदि का सहारा लेता है। वो राज
कपूर थे तो भले फ़िल्म ही बना दी, मगर उसमें उनके
बचपन की किसी स्मृति, किसी चाहत का कोई अंश जरूर रहा
होगा। और उनके जैसे रोमांटिक व्यक्ति के लिए यह अस्वाभाविक भी नहीं।
बचपन में बिछड़ चुकी एक दोस्त जिसके साथ एक नाटक बनाने का इरादा था, को उसके निक नेम के साथ युवावस्था में भी ढूंढ़ता एक नौजवान उनसे कहाँ अलग है जो आज भी किसी नाम को सोशल मीडिया में तलाशते रहते हैं। पिता की मर्जी के विरुद्ध सुरक्षित नौकरी का विकल्प छोड़ अपनी मर्जी से थियेटर चुनने के लिए घर छोड़ने की सोच 1948 में! यह उस राजकपूर का स्वर्णिम दौर था जो किसी दबाव में नहीं आया था।
फ़्लैश बैक में
चलती कहानियां मुझे बेहद पसंद हैं। इसमें पारंगत होने के दावे कईयों को लेकर किये
जाते हैं लेकिन अपनी पहली ही फ़िल्म में एक युवा फ़िल्म मेकर का यह अंदाज चुनना अपनी
कहानी कहने के प्रति पूर्ण आश्वस्ति ही दर्शाता है।
यह मात्र एक फ़िल्म नहीं एक युवा मन की अपनी भावना भरी कथा ही है जिसे अभिव्यक्त करने के लिए उसने रुपहले पर्दे के विकल्प को चुना है। इसे प्रस्तुत करने में उसका साथ छोटे भाई शशि कपूर और रिश्तेदार प्रेमनाथ ने दिया; तो यहीं से दोस्त के रूप में नर्गिस का भी साथ जुड़ा।
शोर-शराबे से दूर सरल बोल और सहज संगीत भी इस फ़िल्म की खासियत है जिसकी कमियों को दूर करते राजकपूर ने आगे चल अपने नौरत्न ही गढ़ लिए। यह भी समझा जा है कि देश विभाजन के उस उथल पुथल के दौर में फ़िल्म निर्माण को लेकर कितनी तकनीकी दिक्कतें भी सहनी पड़ी होंगीं!
अवकाश में पुराने
ख़तों को सहेजने सा अनुभव है ऐसी फिल्मों से गुजरना...
1 comment:
उस वक्त को याद करना ,बचपन में लौटने जैसा है।
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