Monday, June 21, 2021

हर वर्ग भेद की झलक 'रेलवे प्लेटफॉर्म' पर



6 जून को प्रसिद्ध अभिनेता सुनील दत्त की जन्मतिथि थी। फ़िल्म इंडस्ट्री के ये उन चंद नामों में है जिनके जीवन की कहानी भी पूरी फ़िल्मी यानी रोचक और प्रेरक है। मात्र 5 वर्ष की अल्पायु में पिता का साया सर से उठ गया, 18 की उम्र में बंटवारे के बाद बड़ी कठिनाईयों से पाकिस्तान से भारत पहुंचे, पढ़ाई पूरी की, रेडियो प्रस्तोता बने, उसी दौरान निर्देशक रमेश सैगल के संपर्क में आये और उनके साथ पहली फ़िल्म 'रेलवे प्लेटफॉर्म' मिली। फिल्मों में उतार-चढ़ाव देखे, नायक, खलनायक, चरित्र अभिनेता होते राजनीति में पहुंचे, नर्गिस से प्रेम, विवाह, उनकी कैंसर से मृत्यु... और इन सबके बाद बेटे संजय दत्त को लेकर परेशानियां... एक फ़िल्म तो सिर्फ़ उनके ऊपर बननी चाहिए...

बहरहाल, उनकी स्मृति में उनकी पहली फिल्म 'रेलवे प्लेटफॉर्म' देखी। 1955 में भी हमारा हिंदी सिनेमा कहानी, स्क्रिप्ट, प्रस्तुति आदि के मामले में कितना समृद्ध था! गीत-संगीत, अभिनय आदि तो थे ही... 


यह फ़िल्म भी किसी मायने में कम नहीं। एक ट्रेन अगले किसी स्टेशन पर बाढ़ से पटरी डूबे होने के कारण एक अंजान छोटे से स्टेशन पर रुक जाती है। ट्रेन जिसमें कि एक अमीर वर्ग है जिसमें से किसी को अगले दिन क्रिकेट मैच देखना है तो किसी के दोस्त के कुत्ते की मैरेज है। अब जब ट्रेन रुक ही गई है तो इनके लिए पिकनिक का ही स्कोप है। पानी नहीं है तो बियर पीने का भी...

वहीं एक व्यापारी है जो इस आपदा में अवसर की संभावना देखते हुए एक छोटी राशन की दुकान और उससे लगा कुंआ भाड़े पर ले लेता है।

उसकी मान्यता है कि-


                                                                  
(सुण कर इस पापी को तानो/ बदल न लीजो अपणो ठिकाणो /
म्हारो थारो प्रेम पुराणो/ हम हैं थैले तुम हो खज़ानो /
भरते रहियो दास की झोली देते रहियो दान/ तुम्हारी जय जय हो भगवाण)








"बल बेचें बलवान जगत में

घर बेचें घरदार

अमन की रक्षक कौमें बेचें

ज़हरीले हथियार

हाँ तो फिर मैंने पानी बेचा

तो कैसी हाहाकार

फिर मैंने पानी बेचा

तो क्यों है इतनी हाहाकार

अंधेर नगरी चौपट राजा..."

एक पंडित जी हैं जो यहां भी धार्मिक क्रियाकलापों की संभावना निकाल दक्षिणा जमा करने की गुंजाइश भी निकाल लेते हैं।

इसी क्रम में कवि प्रदीप की प्रसिद्ध रचना 'देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान...' की साहिरमय पैरोडी 'देख तेरे भगवान की हालत क्या हो गई इंसान...' भी सामने आती है।

"उन्हीं की पूजा प्रभू को प्यारी

जिनके घर लक्ष्मी की सवारी

जिनका धन्धा चोर बज़ारी

हमको दें भूख और बेकारी

इनको दे वरदान

कितना बदल गया भगवान"

अमीरों और श्रमिकों के बीच एक मध्यवर्गीय नायक भी है पढ़ा-लिखा, बेरोजगार- 'त्रिशंकु'

यह भी गौरतलब है कि उस क्षेत्र का नाम है 'अंधेर नगरी'

"राजा जी ने कुछ हाथी और

कुछ घोड़े हैं पाले

इन्हें न कोई फ़िक्र न चिंता

ये हैं महलों वाले

इनके राज में पड़ गए हमको

अपनी जान के लाले

दोनों हाथों लूट रहे हैं

काले धंधों वाले

जिस मोल भाजी उस मोल खाजा हो       

अंधेर नगरी चौपट राजा

अंधेर नगरी चौपट राजा..."

फ़िल्म में सूत्रधार के रूप में एक कवि महोदय भी हैं, ये सलाह और टिप्पणी तो दे सकते हैं लेकिन दोनों हाथ न होने की वजह से और कुछ कर नहीं सकते। उनका फ़लसफ़ा है कि 2 और 2 सिर्फ चार ही नहीं 22 भी होते हैं।


(नैना, राजकुमारी और विमला: "विधाता ने तो तुम तीनों को एक जैसा बनाया है, अमीर-गरीब तो इंसान ने बनाया है।"- कवि)

फ़िल्म अंत आते-आते बॉलीवुड की सुखांत की परंपरा के अंतर्गत ही अपनी पटरी पर लौट आती है लेकिन तब तक उसे अपने सामर्थ्य में जो संदेश देना था दे चुकी होती है।

6 comments:

अनीता सैनी said...

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (२३-0६-२०२१) को 'क़तार'(चर्चा अंक- ४१०४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर

जितेन्द्र माथुर said...

यह फ़िल्म निश्चय ही देखने योग्य है। सुनील दत्त एक अच्छे कलावंत ही नहीं, एक अच्छे इंसान भी थे। उनकी स्मृति में प्रस्तुत इस समीक्षात्मक लेख की मैं अतिशय प्रशंसा करता हूं।

शारदा अरोरा said...

वाह , बढ़िया लगा वृतान्त

अभिषेक मिश्र said...

धन्यवाद।

अभिषेक मिश्र said...

धन्यवाद

अभिषेक मिश्र said...

शुक्रिया

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