पढाई पूरी करने के बाद मैं भी किसी अच्छी सरकारी नौकरी में जा सकता था। किन्तु मैं पत्रकारिता में आया, क्योंकि मैं आम जनता से सीधा संवाद करना चाहता था. सुना था लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है पत्रकारिता, तो इस स्तम्भ को और मजबूती देना चाहता था मैं.
इसीलिए पुरे उत्साह के साथ इलेक्ट्रोनिक मीडिया में गया। सोचा था मेरे न्यूज़ की एक-एक बाईट से समाज की सच्चाई झलकेगी और समाज को बदलने में मैं भी सहभागी बन सकूँगा. मगर यहाँ आकर पता चला कि जिस बाजारवाद के विकल्प की तलाश की आशा में मैंने इस और रुख किया था, वो तो पूरी तरह इसे अपने शिकंजे में ले चुका है. साबुन और शैम्पू की तरह न्यूज़ की भी मार्केटिंग हो रही है और इसे ऐसे सजा-धजा कर बेचा जा रहा है जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना ही नहीं.
भूत-प्रेतों के इंटरव्यू लेने से बेहतर मैंने प्रिंट मीडिया की राह चुनी। बड़े मीडिया घरानों की राजनीतिक प्रतिबद्धता में तटस्थ पत्रकारिता की उम्मीद कम ही दिख रही थी, इसलिए मैने हिंदी के ह्रदय प्रदेश के इस छोटे से शहर से कलम की अपनी लडाई जारी रखी.
छोटे शहरों में बाजार तो ज्यादा हावी होता नहीं साथ ही आम लोगों से संवाद भी आसानी से कायम हो जाता है। इसी क्रम में मैं भूल गया कि मैं एक पत्रकार हूँ समाज-सुधारक नहीं. स्थानीय फैक्ट्रियों में दुर्दशा और शोषण के शिकार बाल-मजदूरों को जब मेरी रिपोर्टिंग ने बाल-सुधार गृह पहुंचा दिया तो एक बार को लगा कि मेरा पत्रकारिता में आना सार्थक हो गया. किन्तु जब से पता चला है कि बड़े ही सौहाद्रपूर्ण माहौल में वो बच्चे वापस अपनी कर्मस्थली पहुँच गए हैं, मैं खुद से ही निगाहें नहीं मिला पा रहा.
बात यहीं तक रहती तो भी ठीक थी, कि मैने अपनी ओर से प्रयास तो किया। मगर मैं इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रहा कि मुख्यालय में मेरे द्वारा भेजी ख़बरों की चीड़-फाड़ ऐसा व्यक्ति करे जिसे स्थानीय मुद्दों, सरोकारों और जज्बातों का जरा भी भान नहीं.
हममें से जो हवा के रुख के साथ स्वयं को बदलने में सक्षम हैं वो तो ऐसी परिस्थितियों के अनुकूल खुद से समझौता कर ले रहे हैं, मगर मेरे जैसे लोग जिनके लिए पत्रकारिता एक पेशा नहीं आदर्श और जीने का ढंग है वो क्या करें! नया विकल्प तलाशें! ब्लॉग को आजमा कर देखें! हमें तो अभिव्यक्ति और आत्मसंतुष्टि का माध्यम मिल जायेगा, मगर पत्रकारिता जो हमारे लोकतंत्र की जिवंत धरोहर है को इससे जो क्षति पहुँच रही है और पहुँचेगी उसके लिए क्या किसी ने कुछ सोचा है ?
(अपने तथा कुछ पत्रकार मित्रों के अनुभवों पर आधारित)