Tuesday, May 17, 2011

रंगमंच पर : Jaidi To Bush




 'द लास्ट सैल्यूट'

पिछली पोस्ट में मैंने आक्रोश की उत्पत्ति और उसकी अभिव्यक्ति पर यूँ ही सी एक चर्चा कर ली थी, मगर संजोग से उसी शाम मुझे एक नाटक देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ जो छद्म आवरण में छुपी साम्राज्यवाद और उपभोक्तावाद के चरमोत्कर्ष पर पहुँच चुकी महत्वाकांक्षा के विभत्स प्रकटीकरण पर उपजे आक्रोश की अभिव्यक्ति थी. 

मैं बात कर रहा हूँ प्रसिद्द इराकी पत्रकार मुन्तधर अल जैदी की जिन्होंने 14/12/2008 को एक पत्रकार सम्मलेन में अमेरिकी  राष्ट्रपति जौर्ज डबल्यू बुश को उनके 'फेयरवेल संबोधन' के दौरान जूत्ते फ़ेंककर अपनी तरफ से ' लास्ट सैल्यूट' पेश किया था. 

लोकतंत्र की स्थापना, समानता, वैश्विक सुरक्षा जैसे भ्रामक शब्द्जालों और प्रतीकों के बीच एक सामान्य सा जूता भी एक अन्तराष्ट्रीय प्रतीक बन गया - निहत्थी, बेबस, लाचार, कुचली जा चुकी जनता की मूक अभिव्यक्ति का. 

विगत 14 और  15 मई की शाम जैदी लिखीत पुस्तक ' द लास्ट सैल्यूट टू प्रेसीडेंट बुश' की महेश भट्ट और प्रोमोदोम फिल्म्स द्वारा - अस्मिता थिएटर ग्रुप के माध्यम से नाट्य प्रस्तुति नई दिल्ली के 'श्री राम कला केन्द्र' में हुई; जिसका लेखन श्री राजेश कुमार, संगीत निर्देशन डॉ. संगीता गौर और निर्देशक श्री अरविन्द गौर द्वारा किया गया था. जैदी के रूप में मुख्य भूमिका इमरान जाहिद ने निभाई थी. 

यह नाटक एक प्रयास है उन परिस्थितियों से रूबरू करवाने का जिन्होंने एक गुमनाम, आम आदमी को विश्व के सर्वशक्तिशाली देश के राष्ट्रप्रमुख के खिलाफ बगावत के लिए विवश कर दिया. 

अमेरिकी साम्राज्यवादी नीति अपने उपभोक्तावाद की रक्षा के लिए स्वयं को अन्य देशों के संसाधनों पर कब्ज़ा करने तक ही सीमित नहीं रखती, बल्कि उसकी सभ्यता, संस्कृती, इतिहास की आधारशीला को भी ध्वस्त कर उसे उसकी जड़ों से काट अपने स्वाभिमान और आत्मसम्मान को भी भुला देने की रही है. अपने सशक्त प्रचारतंत्र द्वारा सद्दाम के हमशक्लों, अत्याचारों, रासायनिक और आणविक हथियारों का जो काल्पनिक चित्र अमेरिका ने खिंचा था आखिर हकीकत की जमीन पर उसका अस्तिव कहाँ था !!! 


हर देश की अपनी सार्वभौमिकता होती है और उसके दायरे में अपनी समस्याओं को निपटाने के अधिकार होते हैं. स्वपरिभाषित न्याय के छद्मध्वजवाहक बन कर अनधिकृत हस्तक्षेप का किसी को कोई अधिकार नहीं. 

एक जागरूक युवा के रूप में जैदी ने इस परिदृश्य को भांप कर अपनी सीमितताओं के बावजूद यथासंभव प्रतिरोध व्यक्त किया. 

इस आपराधिक (!) कृत्य द्वारा अपने देश के राजकीय मेहमान की तौहीन  के जुर्म में जैदी को गिरफ्तार कर लिया गया. प्रारंभिक पूछताछ के दौरान उसे शारीरिक प्रताडना की भी चर्चाएं उभरीं, मगर नाटक के अनुसार जैदी को खाने में जहर देकर मार डालने की धमकी दी गई थी, जिस वजह से उसने इसकी पुष्टि तो नहीं की, मगर बुश के विरोध पर वह अडिग रहा. इराकी बार असोसिएशन ने उसे तीन वर्ष के कैद की सजा सुनाई, जिसे बाद में संशोधित कर एक वर्ष कर दिया गया. 


कैद से रिहाई के बाद अब जैदी अनाथालय, चिकित्सा संस्थानों की स्थापना की योजना के कार्यान्वयन के प्रयास कर रहे हैं.  

जैदी के इस प्रतिरोध की तुलना भगत सिंह द्वारा 'बहरों को सुनाने' के लिए किये गए धमाके से की जा रही है. इसे एक अहिंसक गाँधीवादी मार्ग भी बताया जा रहा है, जिससे मैं पूर्णतः सहमत नहीं हूँ. मगर कहते हैं न कि - " सब्र की भी एक सीमा होती है और प्रतिरोध मनुष्य के जीवित होने का ही एक चिह्न है. "

यहाँ मैं यह भी कहना चाहूँगा कि मतलबपरस्त और अवसरवादी मित्र से कहीं बेहतर ईमानदार दुश्मन का ही होना नहीं है ??? 

जरुरत है कि हम असली मित्र और शत्रु को पहचानें और तदनुरूप आचरण करें. 



वैसे व्यक्तिगत रूप से मैं इस आदर्शवादी सिद्धात के यहाँ अपने देश के आचरण में उतरने की कोई सूरत नहीं देखता. यदि वाकई विज्ञान कथा लेखक भविष्य का पूर्वानुमान कर सकता है तो मैं भगवान से प्रार्थना करूँगा कि इस सन्दर्भ में मैं जो चित्र उभरता देख रहा हूँ; मेरी वह फंतासी कभी हकीकत न बन पाए. 

18 comments:

Vaanbhatt said...

नक्कारखाने में जब टूटी की आवाज़ दब जाती है...तो उससे ऊँची आवाज़ करनी पड़ती है...हर जगह ये ही तो दिखाई दे रहा है...ताक़तवर लोग आम आदमी को ना समझना चाहते हैं ना ही उनके लिए कुछ करना चाहते हैं...उन्हें तो अपनी पड़ी है...जनता से बड़े-बड़े वादे करते नज़र आते हैं...और पावर में आते ही सब भूल जाते हैं...जनता की मजबूरी भी है कि उसके पास दो ही विकल्प हैं...नेताओं को भी मालूम है...इस बार तुम तो अगली बार हम...अगर इतनी सिक्यूरिटी में ना रहे ये तथाकथित देश सेवक...तो अधिकतर का ये ही हश्र हो...कुछ का तो हम देख भी चुके हैं...

Rahul Singh said...

मित्र और शत्रु सामान्‍यतः विचारों से नहीं, निजी हितों के आधार पर तय होते हैं,

रचना दीक्षित said...

बहुत सुंदर आलेख तमाम सरोकारों से संबद्ध. धन्यबाद बढ़िया जानकारी के लिए.

रवि कुमार, रावतभाटा said...

द लास्ट सैल्यूट...
अच्छा लगा...

Arvind Mishra said...

यह सही है कि अमेरिका को लेकर विश्व जनमत आक्रोशित है मगर इस्लामी आतंकवाद को नेस्तनाबूद करने की मुहिम पर उसके सात खून माफ़ हैं !

Subhashis Das. said...

Yes it is certainly true that America firmly believes in the old adage "might is right". What Zaidi did was perhaps a spontaneous reaction to the atrocities inflicted on the common masses of his country by America. To call Bin laden as the world's greatest terrorist is erroneous, in my understanding the biggest of them all is the American Warren Anderson,"THE BHOPAL BUTCHER"; the one responsible for the killing of over 20,000 innocent people in Bhopal and he now leads a remorse free luxurious life is America (where else).
It good to learn that such plays are being staged in our country, I reckon we would soon learn that a spade must be called a spade.

राज भाटिय़ा said...

अब तो जुता भी महानता को छुने वाला हे, सलम इन जुते फ़ेंकने वालो को...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.धन्यवाद

virendra sharma said...

क्या बात है अभिषेक मिश्र जी कहीं कोई शक सुभे की गुंजाइश ही कहाँ छोड़ी है ,आपकी बहस ने ,विश्लेषण ने हर बिंदु को छूआ है .

अभिषेक मिश्र said...

@ अरविन्द मिश्र जी

क्या स्व्चयनित, तेल और गैस से समृद्ध इस्लामी दुश्मनों के चयन (!) की अमेरिकी नीति वाकई आतंकवाद को निर्मूल कर पायेगी ?

अभिषेक मिश्र said...

@ Megaliths of India

वाकई भारत सरकार द्वारा जैदी को वीजा देना साहसिक कदम है, मगर अमेरिका के विरुद्ध अपनी असहमति दिखलाने केलिए इससे भी आगे बढ़ेंगे हम ?

अभिषेक मिश्र said...
This comment has been removed by the author.
अभिषेक मिश्र said...

@ राज भाटिया जी

आशंका है कि आम जनता का प्रतिरोध सिर्फ जूतों पर ही आश्रित न रह जाये.

अभिषेक मिश्र said...

@ वीरुभाई जी,

धन्यवाद, इस्लामी आतंकवाद पूरी मानवता का सामूहिक दुश्मन है, मगर इसे किसी के लिए अपनी मतलबपरस्ती का माध्यम नहीं बनने देना चाहिए.

SANDEEP PANWAR said...

निशाना चूक गया जूते का, आपका सही लगा,

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

चलिए, कोई तो है जो रंगमंच की अलख जगाए हुए है।

---------
हंसते रहो भाई, हंसाने वाला आ गया।
अब क्‍या दोगे प्‍यार की परिभाषा?

Jyoti Mishra said...

I guess what Muntadhar al-Zaidi did was the culmination of frustration and exasperation of a person who just wanted to let it out in any possible way, and we all know what a fantastic way he chose :D

Kudos to Mahesh bhatt for his efforts !!

Shikha Kaushik said...

excellent post .congr8s

वीना श्रीवास्तव said...

बहुत बढ़िया पोस्ट....

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