Wednesday, August 24, 2011

फ़ाइनल डेस्टिनेशन 5, डेजा वू या सिक्स्थ सेन्स

मेरे साथ ऐसा पहले भी कभी हो चुका है !!!

जी हाँ हमारे आस-पास आपको कई ऐसे लोग मिले होंगे, जिन्हें आपने यह कहते सुना होगा कि जो घटना उनकी आँखों के सामने से गुजर रही है, उसे वो उसी रूप में पहले भी देख चुके हैं. क्या यह उनकी विशिष्ट योग्यता है, कोई सिक्स्थ सेन्स या यूँ ही कोई संजोग. कल यह सवाल पुनः मन में कौंधा जब  रात अपने कुछ मित्रों के साथ  अचानक ही बने कार्यक्रम के अंतर्गत 'फ़ाइनल डेस्टिनेशन 5' देख रहा था.


पहले आप को इस फिल्म की पृष्ठभूमि से अवगत करा दूँ. इस सीरीज की फिल्मों में किसी ग्रुप में से एक व्यक्ति को सहसा ही यह आभास हो जाता है कि उनके साथ कोई आकस्मिक दुर्घटना होने वाली है. इस पूर्वाभास के कारण तत्क्षण तो उनके प्राण बच जाते हैं, मगर फिल्म के अनुसार 'मौत अपने साथ छल पसंद नहीं करती, और वह अपना निर्धारित काम उसी क्रम से करके ही रहती है." इस फिल्म में भी नायक अपने साथियों को एक स्वप्न के आधार पर एक बस दुर्घटना से तो बचा लेता है, मगर अंततः जिस क्रम से उसने अपने साथियों को दुर्घटनाग्रस्त होते देखा था, उसी क्रम में ही उसके साथियों को मौत के इंतकाम का शिकार होने से रोक नहीं ही पाता.


यह तो खैर फिल्मकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी विषय है, मगर सवाल यह तो उठता ही है कि क्या वाकई अवचेतन में ऐसी किसी पूर्वानुमान की संभावना छुपी हुई है ???

दैनिक कार्यकलापों में कई बार कई ऐसे संकेत मिलते हैं जिन्हें किसी कारणवश हमारा चेतन मन अनदेखा करता रहता है. जैसे कोई ऐसी गंध, जिसकी खुशबू बचपन में माँ के द्वारा बनाई किसी सामग्री से मिलती हो. जाहिर तौर पर हम इसे अपनी तार्किकता से नकारते हुए अपने आप को व्यस्तता में डुबोए रखते हैं. मगर इस तरह के संकेत हमारे चेतन मन में स्थान न पाकर अवचेतन में संग्रहीत होते जाते हैं. और कभी न कभी सपने में गाँव के घर, बचपन की कोई घटना का रूप लेकर उभर आते हैं, हमें एक पशोपेश में छोड़कर.

इसी प्रकार जब हम किसी नई जगह पर जाते हैं तो अचानक ऐसा लगता है जैसे हम यहाँ पहले भी आ चुके हैं, या कोई घटना घटित होते देखने पर लगता है जैसे यह मेरे साथ पहले भी घट चुकी है. मनोविज्ञान की शब्दावली में ऐसे अनुभव 'डेजा वू' कहलाते हैं. फ्रेंच में इस शब्द का अर्थ है 'पूर्व में देखा हुआ'. इसकी कार्यविधि को समझने के लिए दिमाग की संरचना को समझना पड़ेगा. मगर संछिप्त में मैं इतना ही कह सकता हूँ कि मनुष्य का मष्तिष्क कई विभागों में बंटा होता है जिसमें दीर्घावधि की याददाश्त, अल्पावधि की याददाश्त या किसी खास घटना से जुडी तात्कालिक याददाश्त संचित होती है. जब इस स्मृति प्रणाली में कोई व्यवधान आता है तब उसे स्मृति भ्रम या दिशा भ्रम जैसी समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है. 'डेजा वू' भी एक ऐसी ही स्मृति भ्रम की घटना का प्रभाव है जिसमें मस्तिष्क के दो हिस्से न्यूरो कार्टेक्स और हिप्पोकैम्पस परस्पर विपरीत अनुभूतियाँ उत्पन्न करते हैं और अंततः इस लोचे में बेचारा मष्तिष्क भ्रमित हो जाता है. 

इस परिघटना को विस्तार से समझने के लिए वरिष्ठ ब्लौगर श्री अरविन्द मिश्र जी की यह पोस्ट तथा मनोवैज्ञानिक विषयों की विशेषज्ञ लवली जी की यह पोस्ट भी देख सकते हैं. 

इस पोस्ट को लिखने का एक कारण यह भी है कि इस लोचे से प्रभावग्रस्त लोगों में मैं भी एक हूँ, और खुद भी ऐसे ही कई सवालों के जवाब ढूँढ रहा हूँ. :-)

8 comments:

Suresh Kumar said...

Some times its happening with me also bhaiya...

Shikha Kaushik said...

अभिषेक जी ये सही है की कभी कभी किसी जगह को देखकर ऐसा लगता है की हम यहाँ पहले आ चुके हैं अथवा किसी व्यक्ति से बात करते समय लगता है की इससे तो मैं पहले मिल चुका हूँ .अव्चेंतन में बसी यादें उभर कर सामने आती ही हैं -ऐसा मेरा मानना है .अच्छी विचारणीय पोस्ट .आभा

Rahul Singh said...

फिलहाल सवालों से लाभान्वित, जवाब मिलें तो फिर शेयर करें.

रचना दीक्षित said...

उम्दा जानकारी. ऐसा मुझे लगता है कभी न कभी सभी के साथ हो जाती है ऐसी घटना. वैज्ञानिक तर्कों से आपने इस का जबाव ढूडने का प्रयास किया. आभार.

Jyoti Mishra said...

Deja vu exists.... but i guess it seems to present more when we watch movies like this.
I love Final destination series..
I have seen all of them n planning to watch the latest very soon :D

shilpy pandey said...

Very well written,and thoughtful article..Our memory point in brain is attached with our point of smell.Specific smells make us memories some specific incidents happened in our life.Many times memories are so faded that we cannot recollect them and just feel,that things are very known to us.This has happened with us earlier.

मनोज कुमार said...

एक तो आपकी लेखनी इतनी सरस है कि आलेख पढ़ते वक़्त एक सेकेंड का भी विचलन नहीं होता।

दूसरे विषय ऐसा चयन करते हैं कि रोचकता बनी रहती है।

तीसरे इस आलेख की हर बात लगती है अपनी ही हो। ऐसे कई अनुभव से दो-चार होते रहता हूं। विज्ञान का विद्यार्थी होने के बावज़ूद भी इसके कारण और रहस्य जानने की न चाह है न कोशिश। कुछ तो ऐसा है जो प्रकृति के सभी नियमों से परे है।

गांव में पिताजी की मृत्यु सुबह तीन बजे होती है। मैं कोलकाता में बेचेनी और घबराहट से उठता हूं, मन उन्हीं पर अटका है। ... और पांच सात मिनट में घर से फोन आता है।

ऐसी कई घटनाएं हैं, बाते हैं जो कई बार घटित हुई हैं।

Arvind Mishra said...

ऐसी घटनाएँ बुद्धि विभ्रम ही हैं -इसके उलट जामिया वू जिसमें पहले घट चुकी घटना को भी मस्तिष्क बिलकुल नया ताजा पाता है..इसके कई लाभ हो सकते हैं ..विस्तार से केवल विवाहित लोगों को ही बताया जा सकता है :) यह वर्जनाओं का देश भारत है!

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