प्रकाश झा की बहुप्रचारित, बहुप्रतीक्षित 'आरक्षण' अंतत प्रदर्शित हो ही गई. इस फिल्म ने कई प्रायोजित तो संभवतः कुछ स्वतः स्फूर्त विरोधों की भी भूमिका तैयार कर दी. यह 'आरक्षण' जैसे संवेदनशील विषय का भी प्रभाव है.
भारत को अन्य किसी भी 'तथाकथित राष्ट्रवादी विचारक' से कहीं बेहतर समझने वाले युवा सन्यासी विवेकानंद भी इस देश की परतंत्रता को सदियों से अपने समाज के एक अभिन्न अंग के प्रति असंवेदनशीलता का ही दुष्परिणाम मानते थे.
गांधीजी ने भी देश में इस वर्ग की महती भूमिका को स्वीकार करते हुए ही 'पृथक निर्वाचन' का विरोध किया था ताकि प्रमुख लक्ष्य स्वतंत्रता के लिए एकजुट संघर्ष कमजोर न पड़ जाये. इसे प्रतीकात्मक रूप से आमिर खान की 'लगान' में काफी खूबसूरती से दर्शाया गया है जिसमें अंग्रेजों के विरुद्ध 'भुवन' की 'राष्ट्रीय टीम' तब तक पूर्ण नहीं हो पाती जबतक की उसमें तमाम पूर्वाग्रहों और विरोध के बावजूद 'दलित' कचरा को शामिल नहीं कर लिया जाता.
निश्चित रूप से सदियों से इस देश के एक बड़े वर्ग को उसके वाजिब और स्वाभाविक अधिकारों से वंचित रखा गया. मगर यह किसी 'मनुवादी व्यवस्था' का परिणाम नहीं था. किसी भी सभ्य और विकसित समाज में कर्म का विभाजन अपरिहार्य है. यह तथ्य हमारे घरों से लेकर संवैधानिक/प्रशासनिक व्यवस्था में भी दृष्टिगोचर होता है. समस्या और विरोध तब उत्पन्न होते हैं जब व्यवस्था 'वंशानुगत' रूप लेती जाती है. और यह संभवतः मानव की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति ही है, जो आज भी विश्व के लगभग सभी भागों में दिख रही है. इसके अलावे प्राकैतिहसिक काल से ही विभिन्न नस्लों के 'माइग्रेशन', परस्पर संबंध, साहचर्य और संघर्ष आदि ने भी इस व्यवस्था को पल्लवित ही किया. मगर जाने-अनजाने किसी भी कारण से पूरे विश्व में ही एक बड़ी आबादी अपने स्वाभाविक अधिकारों से वंचित रह गई. इतिहास में चाहे जो हुआ हो, सभ्यता की ओर बढते मानवजाति के क़दमों का तकाजा यही था कि हम इस गलती को सुधारते और नई व्यवस्था विकसित करते. लगभग हर युग में विश्व के विभिन्न भागों में ऐसे विचारक और समाज सुधारक इस दिशा में आगे बढे. आधुनिक युग में भी गाँधी, अंबेडकर, मार्टिन लूथर किंग, नेल्शन मंडेला आदि इसी सुदीर्घ परंपरा की एक कड़ी हैं.
लगभग सभी देशों में इस ऐतिहासिक भूल को क्रमिक रूप से सुधारने के प्रयास किये गए. बराक ओबामा का अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर पहुंचना इसी कड़ी का भाग है. हमारे यहाँ भी दलितों ने यह उपलब्धि काफी पहले पा ली थी, मगर इसे पूरी तरह से सामाजिक चेतना का प्रभाव नहीं माना जा सकता. कहते हैं तुर्की में लोकतंत्र की स्थापना के साथ जब मुर्तजा कमाल पाशा ने अपने सहयोगियों से पूछा कि पिछड़े वर्गों को बराबरी पर लाने में हमें कितना समय लगेगा, उत्तर मिला दस साल. उनकी दृढनिश्चयी प्रतिक्रिया थी - "तो समझ लो, वो दस वर्ष आज से खत्म हो गए. " दुर्भाग्यवश हमारे भारतवर्ष में कोई सार्थक और कठोर निर्णय लिए बिना आरक्षण का शौर्टकट निकाल लिया गया. जो उर्जा और संसाधन इस महत्वपूर्ण आबादी को समान सुविधा, शिक्षा, अवसर उपलब्ध करने में लगाये जाने थे वो 'आरक्षण' में सिमट कर रह गए. और भी दुर्भाग्यजनक दलित नेताओं का व्यवहार रहा जिसने इस कमजोर और त्रुटिपूर्ण व्यवस्था को स्वीकार भी कर लिया. स्वयं को बाबा अंबेडकर का अनुयायी बताने वाले नेतागण अंबेडकर की आरक्षण को एक निश्चित समय सीमा तक ही लागु किये जाने के सुझाव को भूल गए और अब यह इस देश में एक अनिश्चितकालीन या यूँ कहें कि स्थायी व्यवस्था बन कर रह गई है. जहाँ होड़ स्वयं को प्रतिस्पर्धी बना कर आगे बढ़ने की होनी चाहिए थी, वहीं नए-से-नए वर्ग की मांग स्वयं को आरक्षण के दायरे में लाने की है. जिस उद्देश्य से इस व्यवस्था को स्वीकार किया गया था, वह भी मूलतः अधूरी ही रह गई है. इस व्यवस्था ने समाज के एक वर्ग को आर्थिक सुदृढ़ता तो दी है मगर दलित और गैर दलित 'युवाओं' के मन में एक ऐसी खाई भी रच दी है जो लगातार चौड़ी ही होती जा रही है. यह खाई दलित जातियों में भी अन्य उपजातियों और 'महादलित' जैसी नई आविष्कृत श्रेणियों में भी दिख रही है. गैर दलितों की छोड़ें दलित जातियों में ही पिछले साठ वर्षों में कम-से-कम दो पीढ़ियों ने आरक्षण का लाभ तो उठा ही लिया है. तो वो खुद आगे आकर क्यों नहीं कहतीं कि उन्हें अब इसकी जरुरत नहीं, और अब यह अवसर उनके किसी अन्य दलित भाई को मिले. उनका बर्ताव अब तक वंचित रहे उनके भाइयों के साथ क्या वैसा ही नहीं जैसा कि आरोप वे 'तथाकथित सवर्णों' पर लगाते रहे हैं !!!
और क्या सवर्ण होना ही संपन्न होने की भी गारंटी है कि वो महँगी शिक्षा और प्रतियोगिता परीक्षाओं के दबाव को झेलता ट्रेन में खड़ा-खड़ा एग्जाम देने जाये और उसकी बगल में बैठा एक दलित प्रशासनिक अधिकारी का पुत्र मुफ्त के पास और फ्री में मिल गए एडमिट कार्ड पर मूंगफली खाता लेटा रहे !!! और इस आश्वस्ति के साथ कि उसका तो 40% में चयन तो हो ही जाना है, और गैरदलित का तो कोई कट ऑफ ही नहीं है. क्या यह व्यवस्था एक समान समाज बना रही है ? मेरे एक मित्र ने कहा कि 40/50 % लाना भी कम नहीं है उनके लिए. मैं पूछता हूँ कि क्या वो ईश्वर पर भी संदेह कर रहा है ? क्या ईश्वर ने भी दलित और सवर्ण के लिए अलग से दिमाग की बनावट की है? समान परिवेश में दोनों ही एक समान विकसित हो सकते हैं तो हम इंसानों का अपनी जिम्मेवारी से पलायन क्यों ??? और क्या दलित कर्मचारी द्वारा निपटाई गई 5 फाइलें भी गैर दलित की 12 फाइलों के बराबर है ! तो भला अब सेवाकार्य के दौरान भी आरक्षण का क्या औचित्य है !!!
मैं तो यही आशा करता हूँ कि इस वर्ग के युवा भी कभी जागेंगे और स्वयं आगे बढ़कर एक समान शिक्षा नीति, समान शैक्षणिक सुविधाओं की मांग करेंगे. सरकार प्राथमिक से लेकर वि.वि. तक मुफ्त शिक्षा दे, सारी आवश्यक सुविधायें दे और फिर बराबर की लाईन पर खड़ा कर रेस शुरू करे. ऐसा नहीं कि एक को बैसाखी और दूसरे को घुटने के बल दौड़ा दे. ऐसा करना सिर्फ़ इस देश के भविष्य के प्रति अपनी लापरवाही ही होगी. इस भारत के अंदर दो नहीं अनगिनत भारत बन जायेंगे और ध्यान रखें कि हमारे पडोसी देश ही इन भारतों की गिनती करने हेतु पहले से ही काफी इच्छुक और सक्रिय हैं.
प्रकाश झा साहब ने अपनी फिल्म में यह गाना तो बिल्कुल सही चुना मगर व्यवसायिक दबाव में इसके फिल्मांकन में दीपिका के ठुमकों का मोह नहीं छोड़ पाए वर्ना कोई और 'मौका' इस गाने का और भी बेहतर प्रभाव छोड़ता. आप भी देखें ही नहीं सुनें भी. एड नहीं हो पाया इसलिए सखेद सिर्फ़ सुझाव ही दे पा रहा हूँ.
11 comments:
I think the opportunity should be given to the economically backward class only,not to the so called social backward class...,But this should not be in the form of reservation,..they should be given free education,,and equal opportunity of attending good educational institutions in comparably lower tution fee ..
स भारत के अंदर दो नहं अनिगनत भारत बन जायगे और यान रख क हमारे पडोसी देश ह इन भारत क िगनती करने हेतु पहले से ह काफ इछुक और सय ह.
Yahi sachchai hai kaash eak samvedansheel lekhak ke alaawa kuch jatigat thekedar bhi ise samajh paate?
सही मुद्दे को लेकर आपने सटीक लिखा है आपने ! बेहतरीन प्रस्तुती!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
Nice read... pellucid thoughts u have presented here.
Reservation is a crucial topic u can never reach on a consensus on this.
सदा की तरह आपकी समीक्षा काफ़ी सशक्त लगी। कल फ़िल्म देखता हूं, फिर अपने विशेष विचार के साथ आऊंगा।
धन्यवाद मित्रों. धन्यवाद मनोज जी और आपके विचारों की प्रतीक्षा भी रहेगी.
samjh lo wo 10 year ajj khatm....isi will power ki jaroorat hai....
"earth has only one axis so in politics we need that axis where all indian are balanced in any external or internal force.
सही कहा है मनीष तुमने.
बहुत ही संतुलित और विचारोपयोगी
आपकी समीक्षा पढने के बाद फिल्म देखने की इच्छा जागृत हो गयी है।
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लो जी, मैं तो डॉक्टर बन गया..
क्या साहित्यकार आउट ऑफ डेट हो गये हैं ?
अभिषेक जी मने आपके आरक्षण के लेख को पड़ा| आप के इस लेख ने मुझे बहुत प्रभाभित किया, आप की सोच बहुत सराहनीय है| पर इस अंधे और स्वार्थी समाज को कौन समझाए के ये आरक्षण नमक जहर हमारी एकता को नस्त केर रहा है| आज ये भारत देश पोलितिसान (नेताओ) की गुलामी मे जकड़ा हुआ है वो इसे अपने अनुसार अपने स्वार्थ के लिये उपयोग केर रहे है| अतः हमको आज एकजुट हो केर इस आरक्षण नमक जहर को उकाड फेकना है और उसके लिये हमको अपने देश को इन भ्रस्त नेताओ से छुटकारा दिला केर मिलेगा|
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