मुखौटों की दुनिया मे रहता है आदमी,
मुखौटों पर मुखौटे लगता है आदमी;बार बार बदलकर देखता है मुखौटा,
फिर नया मुखौटा लगाता है आदमी..... - (डा. ए. कीर्तिवर्द्धन अग्रवाल)
जी हाँ अपने चेहरे पर असंख्य नकली चेहरे लगाये, दुनिया के सबसे सभ्य प्रजाति होने का दावा करने वाला मनुष्य अभी भी कितना अमानुषिक और पाशविक है यह सच इन मुखौटों के पीछे ही छुपा है. मगर क्या वाकई उसके कृत्य उसे पाशविक कहे जाने के काबिल भी छोड़ते हैं ? क्या कभी पशु ने पशु के साथ छल-कपट किया है ? क्या उनमें कभी विश्व युद्ध हुआ है ? नाना प्रकारों से अपने साथी को रिझाने वाले इन जीवों को क्या कभी किसी ने कुंठा या आवेश में बलात्कार करते देखा है ??? ये सारे कुकृत्य मनुष्य ही करता है और अपने झूठे उसूलों, आदर्शों के मुखौटे तले अपनी मूल विकृतियों को छुपाने की असफल चेष्टा करता है.
मुखौटों का यह खेल इंसान अपने- आप के साथ तो खेलता ही है, स्त्री बनाम पुरुष (या Vice - Versa भी), व्यक्ति बनाम समाज, राजनीति बनाम आम आदमी ही नहीं दो राष्ट्रों के मध्य भी यह क्षद्म दांव-पेंच चलते रहते हैं. मुखौटों के इस प्रपंच और इन्सान में नैतिकता की नपुंसकता और बढ़ते लालच ने इस ब्रह्माण्ड को भी टुकड़ों में बाँट दिया है. एक और शोषक हैं और दूसरी तरफ शोषित. शोषक और शोषितों के मध्य की यह खाई बढती ही जा रही है. हाँ कभी-कभी एक पक्ष अपनी तात्कालिक दावों से बाजी जीतता हुआ लगता तो है, मगर अंततः वह खुद को उन्ही मुखौटों के शिकंजे में घिरा पता है, जिससे उबरने की उसने पहल शुरू की थी.
कुछ ऐसे ही विचारोत्तेजक मुद्दों को स्पर्श करता हुआ सक्षम थियेटर समूह के नाट्य समारोह की अंतिम प्रस्तुति ' मुखौटे '; जिसके लेखक थे हमीदुल्ला और निर्देशन किया था सुनील रावत जी ने.
पत्नी के सामने आदर्श का मुखौटा |
एक पति जो अपनी नपुंसकता को छुपाने के लिए अपनी पत्नी पर दबाव डालता है पौराणिक नियोग प्रथा के मुखौटे के नाम पर, तो एक पत्नी जो अपने पूर्व प्रेमी से संबंधों को आधुनिकता का परिचायक मानती है इस वैचारिक मुखौटे के साथ कि हर स्त्री अपने आप में पूर्ण सक्षम है, और उसने अब नारी शरीर की नियति में मरना नहीं जीना सीख लिया है. उसके अनुभवों के अनुसार कमजोर पात्र की इस गन्दगी में कोई जगह नहीं.
पारंपरिकता से स्वतंत्रता और आधुनिकता का मुखौटा |
और वहीँ समाज के शोषित, वंचित वर्गों के प्रतिनिधि वन्य प्राणियों का भी एक समूह है जो सत्ता से अपने लिए अधिकार और सम्मान की मांग करता है. मगर सत्ता जो शेर की तरह ताकतवर है और लोमड़ी की तरह चालाक, जो सच्चे और ताकतवर को देखने की आदि नहीं उन ' वन्य प्रतिनिधियों' को भी अपने शब्दजाल, सम्मान, बौद्धिकता के भ्रमजाल में उलझा एक ऐसे नशे में मदहोश कर देती है कि वो अपने लक्ष्य से ही भटक जाते हैं. (क्या सत्ता सदियों से समस्त विश्व में भी ऐसा ही खेल नहीं खेलती आ रही ! )
शोषितों की मांग उठाने से पूर्व बौद्धिकता का वैश्विक मुखौटा |
सत्ता के पास भटकाने के लिए वैचारिक और बौद्धिक क्रांति की कवायदें हैं, अन्तराष्ट्रीय संकट हैं, आर्थिक संकट हैं, घरेलु उलझनें हैं और तब तक उत्पीड़ितों के लिए सिर्फ आश्वासन और परिवर्तन का इंतज़ार. मुखौटों के इस खेल में असली मुद्दे, असली चेहरे खो ही जाते हैं, इन मुखौटों के उतरने, सच्चाई सामने आने और असली क्रांति लाने के लिए रह जाता है तो बस इंतज़ार.
इंतजार - जब तक कि समानता और सम्मान धरती पर उतरे... |
जीवन और समाज की कडवी सच्चाइयों को सामने लाने में काफी सक्षम रहा है यह नाटक. और इसमें इसके कलाकारों और निर्देशक सहित पूरे टीम की उल्लेखनीय भूमिका रही है. नाटक के प्रमुख कलाकारों में अनामिका वशिष्ठ, विनीता नायक, विक्रमादित्य, आर्यन चौधरी, नवीन आदि की प्रमुख भूमिका रही. कई ज्वलंत सवालों से जुड़े नाटकों की प्रस्तुति के साथ सक्षम थियेटर समूह का यह आयोजन अभी तो समाप्त हो गया है, मगर आशा है जल्द ही लौटेगा कुछ नई प्रस्तुतियों के साथ. इस समूह और इससे जुड़े कार्यकर्ताओं को हार्दिक शुभकामनाएं.
10 comments:
आज भी हम ...खुद पर भी मुखौटा लगाये जीये जा रहे है ..........बहुत अच्छी प्रस्तुति
सार्थक प्रस्तुति ....
मुखौटे शीर्षक की एक बढि़या रचना, परितोष चक्रवर्ती जी की है, जो लिखी जाने के पहले मैंने सुनी थी, वैसे इकहरे होते चेहरों पर अस्तित्ववाद के दौर के बाद बातें अधिक होने लगी थीं.
आधे-अधूरे जीवन जीने वाला यह वर्ग जीने के लिए मुखौटा लगाता है या मुखौटा लगाकर ही जीता है। नाटक देखने का सौभाग्य मिले तो जानूं।
दुर्ग में रहते हुये क्षितिज रंग शिविर की बहुत सी सशक्त प्रस्तुतियाँ रंग-मंच पर देखने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा.आपकी सजीव रिपोर्ट ने 'मुखौटे' को काफी हद तक हृदय तक पहुँचा दिया.लगा कि नाटक देख कर लौट रहा हूँ
बहुत सुंदर प्रस्तुति
असली नकली चेहरा
सर्वप्रथम नवरात्रि पर्व पर माँ आदि शक्ति नव-दुर्गा से सबकी खुशहाली की प्रार्थना करते हुए इस पावन पर्व की बहुत बहुत बधाई व हार्दिक शुभकामनायें।
नाटक देखने का सौभाग्य तो नही मिला यह नहीं कहुंगा…हां पर देखा नही…शायद मनुष्य के भीतर ही दोतरफ़ा चरित्र विद्यमान रहता है ऐसा लगता है…मैने मुखौटे बदलकर जीने वाले, व्यक्ति का सामना किया है। घर लिया किराये पर। प्रवेश तो ऐसे किया कि उससे शरीफ़ आदमी कोई है ही नही…घर छोड़ा तो दो महीने के किराये का पोस्ट डेटेड चेक दे गया समय पर गये चेक भुनाने पता चला उसके खाते मे पैसा ही नही है। आया था शराफ़त अली बनकर……गया तो सर आफ़त देकर। सुंदर प्रस्तुति..
sunder likha hai aapne padh kar lag ki natak bahut achchha raha hoga
sabhi ko bahut bahut badhai
rachana
kahne ko to mukhauta odhna galat hai, maana jaata hai ki sadaiv sach ke sath rahna chaahiye, par ye mumkin nahin hota. chaahe anchaahe mukhaute odhne hin padte hain, dikhaave ke liye hin sahi. kabhi kabhi sach itna vikrit hota ki jaanleva ho jata hai, aise mein mukhauta ek raah pradaan karta hai jine keliye. mukhote ki ahmiyat waqt ke hisaab se bhi tay ki jaati hai.
is natak ka manchan to nahin dekhi, lekin padhkar lag raha jaise jivan ki vastavikta dikhaya gaya hoga. shubhkaamnaayen.
true.. these days everyone is hiding a skin which is too tough..
a fake n artificial way of life style is prevalent.
Nice write up !!
Enjoyyed
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