Friday, December 26, 2014

मैंने प्यार किया के 25 बरस...







29 दिसंबर 1989 को रिलीज हुई ‘मैंने प्यार किया’ के 25 साल पूरे हो रहे हैं। इसके साथ एक पूरी पीढ़ी जवाँ हुई है जिसकी यादों में यह फिल्म रची-बसी है। किशोर वय प्रेम के रोमानी अहसासों को अभिव्यक्ति देती यह फिल्म कई मायनों में ट्रेंड सेटर थी। शायद इसके पीछे युवा निर्देशक सूरज बड़जात्या की युवा सोच भी थी जिसने राजश्री बैनर की परंपरा को भी एक युवा अंदाज दिया। घिसी-पीटी ऐक्शन फिल्मों के दौर में युवा प्रेम कहानी को बिल्कुल फ़्रेश अंदाज में प्रस्तुत करने का यह प्रयास एक नए दौर के शुरू होने की कहानी कह रहा था। ‘एक लड़का और लड़की दोस्त हो सकते हैं’ के सवाल को स्पर्श करती यह फिल्म युवा पीढ़ी की बदलती सोच को भी अभिव्यक्त कर रही थी। 





स्थापित कलाकारों की भीड़ से अलग नए चेहरों को स्वीकार करने की दर्शकों की चाहत को इस फिल्म की अपार सफलता ने दृढ़ता से स्थापित किया। भाग्य श्री की सरल और घरेलू छवि घर-घर में बस गई, युवा दिलों पर छा गई, सलमान खान नई पीढ़ी के एक रोल मौड़ल के रूप में उभरे। कोई शक नहीं कि शरीर सौष्ठव पर ध्यान देने का ट्रेंड स्थापित करने में भी सलमान की छवि की प्रमुख भूमिका रही जो आज भी कायम है। 


हिन्दी सिनेमा में काफी समय से हाशिये पर पड़ी सहायक भूमिकाओं में माँ की छवि को एक नया आयाम मिला। अपने बेटे को असीम प्यार करने वाली ममतामयी माँ जो उसे संस्कार देती है और जिन संस्कारों पर खड़ा प्रेम जब अपने प्यार की पसंदगी का इज़हार करता है तो सही गलत के पक्ष को समझते हुये वह अपने पति के बजाए बेटे के पक्ष में मजबूती से खड़ी होती है। अथाह लाड़-प्यार में पला बेटा अपने प्यार को पाने के लिए शौर्टकट नहीं अपनाता बल्कि एक ऐसा कठिन रास्ता चुनता है जो उसके प्यार की राह में दीवार बने सभी लोगों को उसके समर्थन में ले ही आता है। विदेश से लौटे प्रेम के माध्यम से पश्चिम और भारतीय परंपराओं का टकराव भी इसके बाद की कई फिल्मों में बखूबी आजमाया गया। दोस्ती, अमीरी-गरीबी, सही-गलत, चालबाजियाँ और सच्चाई तथा प्यार की ताकत जैसी हिन्दी सिनेमा के कई पारंपरिक विषयों को प्रभावी तरीके से स्पर्श किया गया ‘मैंने प्यार किया’ में। तमाम आधुनिकता के बावजूद राजश्री की पारिवारिक फिल्मों की प्रचलित छवि इस फिल्म में भी कायम रखी गई जो इस फिल्म के प्रसिद्ध बिना प्रत्यक्ष संपर्क में आए फिल्माए ‘किस सीन’ से भी झलकती है जो सलमान की नजर में हिन्दी सिनेमा का बेस्ट किस सीन है। 



गौरतलब है कि ‘बीवी हो तो ऐसी’ में अपनी परफ़ौर्मेंस से निराश सलमान ने सूरज से खुद को इस फिल्म में न लेने का भी आग्रह किया था, जिसे सूरज ने नकार दिया और उनका यह सफल साथ आज भी कायम है। इसी तरह भाग्य श्री से पहले यह भूमिका दूरदर्शन के धारावाहिक ‘फिर वही तलाश’ फेम पूनम को औफ़र की गई थी। अगर उन्होने यह भूमिका स्वीकार कर ली होती तो घर-घर और हर जवाँ दिल में बसने वाली सुमन की छवि उन्ही की होती...



इसके साथ राम-लक्ष्मण के संगीत को याद न किया जाना भी अनुचित होगा जिनके माध्यम से हिन्दी सिनेमा में अर्से बाद सुरीले गीतों की पुनः वापसी हुई... 




बहरहाल अपने बेहतरीन अभिनय, संवाद, गीत-संगीत और निर्देशन आदि से सजी यह फिल्म बौलीवुड के इतिहास का एक मील का पत्थर है जो आगे भी कई फिल्म प्रेमियों को आकर्षित और प्रेरित करती रहेगी.......

Sunday, September 21, 2014

सिनेमा के साथ एक प्रयोग...

सिनेमा कहानी कहने का सबसे प्रभावी और सशक्त माध्यम है। आपके पास कोई ठोस विचार हो तो उसे अनगिनत लोगों तक संप्रेषित करने में इस विधा का कोई जवाब नहीं। मायानगरी की चकाचौंध में कुछ चेहरे ऐसे भी हैं जो इस विधा का प्रयोग कर रहे हैं एक मिशन के साथ। मिशन है आम लोगों में सोच का एक स्तर विकसित करना, उनके मनोमस्तिष्क को अपने विचारों से उद्द्वेलित कर देना जिससे कि यह लौ दर लौ आगे बढती रहे। यहाँ मैं बात कर रहा हूं श्रीराम डाल्टन और उनकी टीम की। निर्माता-निर्देशक सुभाष घई, सिनेमेटोग्राफर अशोक मेहता जैसी हस्तियों के साथ काम कर रहे श्रीराम ने स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू किया, नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे कलाकार को लेकर  कुछ शौर्ट फिल्म्स बनाईं तो कईयों के हुनर को उभारा भी। हाल ही में लुप्त हो रही विधा 'बहुरुपिया' पर बनारस की पृष्ठभूमि में 'द लॉस्ट बहुरुपिया' बनाई जिसे राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी जी के हाथों राष्ट्रीय पुरष्कार भी मिला। अब वो झाड़खंड में पिछले कुछ दशकों में बदली सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों पर 'द स्प्रिंग थंडर' का निर्माण कर रहे हैं। लीक से अलग राह पर चलने वालों के आगे परेशानियाँ भी कम नहीं आतीं, मगर ये उनलोगों में हैं जो इनसे घबड़ा पीछे नही हटते बल्कि खुद तो आगे बढ़ते ही हैं दूसरों को सहारा दे रास्ता भी बनाते हैं। अब ये इस क्षेत्र में एक नया प्रयोग कर रहे हैं। झाड़खंड के आम लोगों को सिनेमा से जोड़ने का। मात्र दर्शक के रूप में नहीं बल्कि उनकी अपनी कहानी को कागज से लेकर परदे तक उकेरने में भी। प्रोजेक्ट छोटा और सहज नहीं मगर सपना और लगन उससे भी बड़ी है। झाड़खंड में समस्याओं की कमी नहीं तो इनके पास हौसलों की भी कमी नहीं। संसाधनों की कमी राह में थोड़े रोड़े भले डाल ले, राह रोक नहीं पाती। परिंदों की तरह इनकी परवाज परवान चढ़ रही है।  आप भी जुड़ सकते हैं इनके साथ इनके इस प्रयास मेंयदि आपके पास भी वही जज्बा और जज्बात हों जो इनके पास है....
(http://m.bhaskar.com/news/referer/521/JHA-RAN-national-award-for-the-film-directed-by-sriram-dalton-4602721-PHO.html?referrer_url=https%3A%2F%2Fwww.google.co.in%2F)

Tuesday, September 9, 2014

अशोक चक्र से सम्मानित एअर होस्टेस नीरजा भनोट


यूँ तो आधुनिक भारत के इतिहास में भी वीरता और बहादुरी के क्षेत्र में महिलाओं का योगदान कम नहीं रहा है, मगर यह जिक्र खास बन जाता है उस वीरांगना के कारण जो कि एक एअर होस्टेस थीं और जिन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च असैन्य नागरिक सम्मान 'अशोक चक्र' से सम्मानित किया गया। 7 सितम्बर 1964 को चंड़ीगढ़ के हरीश भनोत जी ले यहाँ जन्मी इस बच्ची को वायुयान में बैठने और आकाश में उड़ने की प्रबल इच्छा थी।
नीरजा ने अपनी वो इच्छा 16 जनवरी 1986 को एयर लाइन्स पैन एम ज्वाइन करके पूरी की और वहां बतौर एयर होस्टेस काम करने लगीं। 5 सितम्बर 1986 को पैन एम 73 विमान कराची, पाकिस्तान के एयरपोर्ट पर अपने पायलेट का इंतजार कर रहा था। विमान में लगभग 400 यात्री बैठे हुये थे। अचानक 4 आतंकवादियों ने पूरे विमान को गन प्वांइट पर ले लिया। उन्होंने पाकिस्तानी सरकार पर दबाव बनाया कि वो जल्द से जल्द विमान में पायलट को भेजे। किन्तु पाकिस्तानी सरकार ने मना कर दिया। तब आतंकियों ने नीरजा और उसकी सहयोगियों को बुलाया कि वो सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्रित करे ताकि वो किसी अमेरिकन नागरिक को मारकर पाकिस्तान पर दबाव बना सके। नीरजा ने सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्रित किये और विमान में बैठे अमेरिकी यात्रियों के पासपोर्ट छुपाकर बाकी सभी आतंकियों को सौंप दिये। धीरे-धीरे 16 घंटे बीत गये। पाकिस्तान सरकार और आतंकियों के बीच वार्ता का कोई नतीजा नहीं निकला। अचानक नीरजा को ध्यान आया कि प्लेन में फ्यूल किसी भी समय समाप्त हो सकता है और उसके बाद अंधेरा हो जायेगा। उसने अपनी सहपरिचायिकाओं को यात्रियों को खाना बांटने के लिए कहा और साथ ही विमान के आपातकालीन द्वारों के बारे में समझाने वाला कार्ड भी देने को कहा। नीरजा को पता लग चुका था कि आतंकवादी सभी यात्रियों को मारने की सोच चुके हैं।
उसने सर्वप्रथम खाने के पैकेट आतंकियों को ही दिये क्योंकि उसका सोचना था कि भूख से पेट भरने के बाद शायद वो शांत दिमाग से बात करें। इसी बीच सभी यात्रियों ने आपातकालीन द्वारों की पहचान कर ली। नीरजा ने जैसा सोचा था वही हुआ। प्लेन का फ्यूल समाप्त हो गया और चारो ओर अंधेरा छा गया। नीरजा तो इसी समय का इंतजार कर रही थी। तुरन्त उसने विमान के सारे आपातकालीन द्वार खोल दिये। योजना के अनुरूप ही यात्री तुरन्त उन द्वारों के नीचे कूदने लगे। वहीं आतंकियों ने भी अंधेरे में फायरिंग शुरू कर दी। किन्तु नीरजा ने अपने साहस से लगभग सभी यात्रियों को बचा लिया था। कुछ घायल अवश्य हो गये थे किन्तु ठीक थे। किन्तु इससे पहले कि नीरजा खुद भागती तभी उसे बच्चों के रोने की आवाज सुनाई दी। दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना के कमांडो भी विमान में आ चुके थे।
इधर नीरजा उन तीन बच्चों को खोज चुकी थी और उन्हें लेकर विमान के आपातकालीन द्वार की ओर बढ़ने लगी। तभी एक आतंकवादी उसके सामने आ खड़ा हुआ। नीरजा ने बच्चों को आपातकालीन द्वार की ओर धकेल दिया और स्वयं उस आतंकी से भिड़ गई। कहाँ वो दुर्दांत आतंकवादी और कहाँ वो 23 वर्ष की पतली-दुबली लड़की। आतंकी ने कई गोलियां उसके सीने में उतार डाली। नीरजा ने अपना बलिदान दे दिया। आतंकियों को पाकिस्तानी कमांडों ने गिरफ्तार कर लिया, किन्तु वो नीरजा को न बचा सके। उनपर बाद में मुकदमा चला और 1988 में उन्हें मौत की सजा सुनाई गई जो बाद नें उम्रकैद नें बदल गई। नीरजा के बलिदान के बाद भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'अशोक चक्र' प्रदान किया तो वहीं पाकिस्तान की सरकार ने भी नीरजा को 'तमगा-ए-इन्सानियत' प्रदान किया। 2004 में नीरजा भनोत पर डाक टिकट भी जारी हो चुका है।
स्वतंत्र भारत की इस महानतम विरांगना को नमन.....

Friday, September 5, 2014

शिक्षक दिवस के अवसर पर गुरु द्रोणाचार्य का स्मरण


यूँ तो गुरु द्रोण को आज के दिन थोड़ी आलोचना के साथ ही याद किया जाता है। शिक्षा को राजकुल तक सीमित करने, व्यवसायीकरण करने और एकलव्य के साथ अन्याय करने तक के लिए भी... मगर कई मायनों में उनकी तुलना आज के शिक्षा के व्यवसायियों से की भी नहीं जा सकती। खैर फ़िलहाल चर्चा एकलव्य की। उनके ऊपर एकलव्य का अंगूठा गुरु दक्षिणा में मांग लेने के आरोप लगाये जाते हैं। मगर एकलव्य जैसे शिष्य के साथ कोई गुरु ऐसा कैसे कर सकता है ! कई बार गुरु की कठोरता के पीछे कुछ और ही आशय होता है। प्राचीन परम्पराओं में तीर चलाने की कई विधियाँ प्रचलित थीं। इनमें  अंगूठे का प्रयोग वाली विधि शेष से कमतर ही मानी जाती थी। अंगूठे को तीर चलाने की निरंतरता में बाधक ही माना जाता था। आज भी आधुनिक तीरंदाज सामान्यतः अंगूठे का प्रयोग नहीं करते। तो कहीं ऐसा तो नहीं कि जिसप्रकार एकलव्य ने बिना द्रोण को बताये उनसे ज्ञान लिया उसी प्रकार गुरु द्रोण ने भी अपनी सीमाओं के बावजूद और जगत के तमाम लांक्षण उठाते हुए भी एकलव्य को उसकी गुरुभक्ति का प्रतिदान दे ही दिया, जो कुछ न कहते हुए भी उसके भविष्य के लिए बेहतर ही था। अंगूठे के बिना भी उसकी लगन उसे तीरंदाजी के अभ्यास के लिए प्रेरित करती ही और अब उसके पास वही विकल्प होता जो अन्य राजपुरुषों के पास थे। अन्यथा यदि गुरु द्रोण उससे उसकी हथेली भी मांग ले सकते थे और यहां शायद ही कोई हो जो कहे कि एकलव्य इंकार कर देता...
इससे यह भी स्पष्ट है कि गुरु-शिष्य संबंध में दोनों की योग्यता ही नहीं समर्पण का भी कितना महत्व है.....

Friday, August 29, 2014

गणेश चतुर्थी या ढेलहिया चौथ



आज गणेश चतुर्थी है। और संजोग ऐसा कि हर पर्व-त्यौहार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले चांद को आज देखना भी वर्जित है। कहते है इससे कलंक लगता है। जब इस भूल के कारन स्वयं श्रीकृष्ण पर चोरी का आरोप लग गया तो आमजनों की क्या बिसात है !
प्रचलित कथा के अनुसार एक बार गणेश जी अपने जन्मदिन के अवसर पर अपने एक प्रिय भक्त के यहाँ भोजन के आमंत्रण पर गए। वहाँ उन्होंने भरपेट भोजन किया और अपने आराधकों को सुख-प्राप्ति के भरपूर आशीर्वाद दिए। इसके बाद वे अपनी सवारी चूहे के ऊपर चढकर शिवलोक की तरफ चल दिये कि तभी एक साँप ने उनका रास्ता काट दिया। चूहे तो साँप के प्रिय भोजन होते हैं। वैसे जिसके ऊपर श्री गणेश जी का आशीर्वाद हो उसे डरने की क्या जरूरत, परन्तु गणेश जी का सवारी भी था तो एक चूहा ही। वह साँप से बहुत डर गया और भाग खड़ा हुआ। गणेश जी लड़खड़ा कर गिर पड़े। रात का समय था और आसमान में चतुर्थी का चाँद चमचमा रहा था। यह दृश्य देखकर चाँद से रहा ना गया और जोर-जोर से ठहाके मारकर हँस पड़ा। यह देखकर गणेश जी के गुस्से का ठिकाना ना रहा। साँप को सबक सिखाने के बाद गणेश जी मखौल उड़ाते चाँद की तरफ दौड़ पड़े। गुस्से से लाल गणेश जी को देखकर चाँद भाग खड़ा हुआ और डरकर अपने महल में छिप गया।

रात्री का समय था। चाँद के छिप जाने के कारण चारों तरफ अँधेरा छा गया। पृथ्वी पर लोग परेशान हो गए। सभी देवों ने गणेश जी से धरती पर शांती लाने की प्रार्थना की और यह आग्रह किया कि चँद्रमा को क्षमा कर दें। अंततः गणेश जी पिघल गए और चाँद को अपने क्रोध से मुक्त किया। पर जाते-जाते उसे एक शाप भी दे गए। चूँकि चाँद एक चोर की तरह अपने महल में छुप गया था, जैसे उसने कोई अपराध किया हो। इसीलिए अगर कोई गणेश जी के जन्मदिन पर चाँद का दर्शन करेगा, तो वह भी चोर कहलाएगा। यही कारण है कि आज भी लोग गणेश चतुर्थी के अवसर पर चाँद की तरफ नहीं झाँकते।

चंद्र दर्शन दोष से बचाव  :--

प्रत्येक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को चन्द्रदर्शन के पश्चात्‌ व्रती को आहार लेने का निर्देश है, इसके पूर्व नहीं। किंतु भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रात्रि में चन्द्र-दर्शन (चन्द्रमा देखने को) निषिद्ध किया गया है। यदि जाने-अनजाने में चन्द्रमा दिख भी जाए तो निम्न मंत्र का पाठ अवश्य कर लेना चाहिए-
'सिहः प्रसेनम्‌ अवधीत्‌, सिंहो जाम्बवता हतः।   
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्वमन्तकः॥'
इस दिन चन्द्रमा देख लेने पर उसके दोष के शमन हेतु श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के 57वेंअध्याय को पढें। जिसमें स्यमन्तकमणि के हरण का प्रसंग हैं।
मैथिल कवि विद्यापति ने भी इस विडंबना को सुन्दर अभिव्यक्ति दी है-
"कि हम सांझ क एकसर तारा, कि भादव चौथि क ससि।
इथि दुहु माँझ कवोन मोर आनन, जे पहु हेरसि न हँसि।।"
राधा कृष्ण की उपेक्षा से दुखी हैं। कहती हैं- क्या मैं शाम का एकाकी तारा हूँ (यह तारा उदासी का प्रतीक माना जाता है) या भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का चाँद? इन दोनों में मेरा मुँह किस तरह का है? न प्रभु मुझे देख रहे हैं न मुझ पर हँस ही रहे हैं?
शास्त्रों और कवियों की बातें अपनी जगह आप चाहें तो इस अवसर से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी बाँट सकते हैं...

Wednesday, July 23, 2014

ऑल इंडिया रेडियो की वर्षगांठ पर कुछ यादें...




आज  औल इंडिया रेडियो की 87 वीं सालगिरह है। 23 जुलाई 1927 को ही मुंबई में रेडियो प्रसारण की शुरुआत हुई थी। टीवी की धमक से रेडियो आज चाहे घर के एक कोने में सिमट गया हो, मगर एक समय में स्टेटस सिंबल से आगे बढ़ता हुआ आम आदमी के लिए सूचना और मनोरंजन का यह सबसे प्रभावशाली माध्यम था। सुबह की शुरुआत इस पर आने वाले भजनों के साथ तो रात में उद्घोषक की विदा के साथ सोने की भी तैयारी। निशाचर विद्यार्थियों के अलावे भी  जो अन्य शामिल हों उनका साथ रात भर भी बखूबी देता था रेडियो। और इसकी सबसे बड़ी बात ये कि इसमें हमेशा आँखें गड़ाए रखने की जरूरत भी नहीं, कमरे के एक कोने या सामने रखी मेज पर अनवरत चलने वाला यह रेडियो अकेलेपन का एहसास भी नहीं होने देता था। इसका होना मानो साथ में हरदम एक मित्र की उपस्थिति से कम नहीं था, जिसके साथ जानकारी और मनोरंजन दोनों के ही लम्हे बिताए जा सकते थे। बचपन में कइयों की स्मृति में बसा होगा माँ का रेडियो से किसी खास व्यंजन की विधि नोट करना तो कभी लोकगीत को जल्दी-जल्दी अपनी डायरी में उकेरना। सुबह समाचारों के वक्त आस-पास के एक-दो और चाचाओं-मामाओं का आ जुटना। और ताज्जुब ये कि रेडियो के 15 मिनट के संक्षिप्त और संश्लिष्ट ख़बरों का मुक़ाबला आज के 24X7 खबरिया चैनल भी नहीं कर पाते। कई इतिहास रचती ख़बरों, ऐतिहासिक कमेंट्रीयों और भूले-बिसरे गानों की स्मृतियाँ आज भी कइयों के जेहन में यूँ ही जीवंत हैं।

रेडियो की प्रासंगिकता आज भी ख़त्म नहीं हुई है। समय के साथ स्वरूप में थोड़े परिवर्तन जरूर आए हों, मगर विविध भारती जैसी मनोरंजन सेवा की लोकप्रियता, कई नए एफ़एम स्टेशनों की होड़ इसकी उपयोगिता की स्वीकृति को ही दर्शाते हैं। आधुनिक गाड़ियों आदि में भी एफ़एम इंस्टाल करवा लोग सफर के साथ न सिर्फ जानकारी और मनोरंजन  के इस माध्यम से जुड़े हुये हैं, बल्कि इसने तो यातायात, मौसम सहित आवश्यकतानुसार लाइफ़लाइन आदि की सुविधाएँ उपलब्ध करवा कई परेशानियों और आपदाओं आदि का सामना करने में भी कारगर मदद पहुँचाई है।

इस प्रभावशाली माध्यम से जुड़े लोगों को शुभकामना के साथ आशा है सूचना के इस दौर में विभिन्न प्रसार माध्यमों के साथ रेडियो भी कदम-से-कदम मिलकर आगे बढ़ता रहे हम सभी की जिंदगी को छूते हुये और इस व्यस्ततम जिंदगी को सुकून देने वाली कुछ पुरानी यादों को ताजा करते हुये... 

Friday, June 20, 2014

धर्म का मूल स्वरूप

विश्व में घटित हो रही कई घटनाओं को देख जो सोच उभरी उसे बाँटने का प्रयास है ये। थोड़ा लंबा तो हो गया है मगर यह आत्मसंतुष्टि के लिए जरूरी था। जो पढ़ सकें अपनी राय भी दे सकते हैं।

अक्सर सभ्यताओं के संघर्ष की बात कही जाती है- आजकल तो कुछ ज्यादा ही ज़ोर-शोर से। मगर क्या यह कोई नई बात है ? अलग-अलग विचारधाराओं के लोग जब साथ रहते हैं तो उसकी सर्वस्वीकार्यता के लिए संघर्ष होता ही है। इसे समझने के लिए बाहर कहीं देखने की खास जरूरत नहीं। और उनके जिक्र की भी उतनी जरूरत नहीं जहाँ संवाद की संभावना कम ही है। मगर समाधान है तो संवाद में ही और गनीमत है कि इस देश में तर्क और शास्त्रार्थ जैसे माध्यमों से संवाद की समृद्ध परंपरा रही है। कब तक रहेगी वो अलग विषय है। भारत तो विश्व गुरु रहा ही है और सभ्यता के प्रारंभिक दौर से ही कई मायनों में विश्व को दिशा दिखाता रहा है। ऐसे में यदि भारत को ही समझ लें तो काफी कुछ समझ सकते हैं। इसलिए अभी सिर्फ अपनी ही बात।
आज अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं (यदि अलग हैं) के एक-दूसरे पर हावी होने की बात होती रहती है। क्या ये नई बात है, क्या ये स्थायी है ? नहीं। भारत में सदा से ही कई धाराएं बहती रही हैं। कभी एक धारा ज्यादा प्रभावी होकर दूसरों पर हावी होने की कोशिश करती है मगर सभी का अपना अस्तित्व बना ही रहता है, अपने वक्त की प्रतीक्षा में। जैन धर्मावलंबी मानते हैं कि सनातन धर्म के प्रतिनिधि राम के काल में भी राजा जनक जो विदेह भी कहलाते थे जैन मान्यता के प्रतिनिधि थे। वो श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम को भी अपनी प्राचीन परंपरा से जोड़ते हैं। कहने का आशय यह कि अपनी जमीन तलाशने की यह प्रक्रिया काफी दूर तक जाती है, और जब समय आता है हिंदु धर्म पर न सिर्फ हावी होती है बल्कि आवश्यकतानुसार बौद्ध धर्म से टकराती भी है। इसी प्रकार बौद्ध धर्म भी अपनी जातक कथाओं से हिंदु मान्यताओं में अपनी जगह तलाशने का प्रयास करता हुआ इस देश का राजधर्म भी बन जाता है। इसी के साथ शैव, वैष्णव और न जाने अन्य कितनी धाराएं समय के साथ ऊपर-नीचे होती रहीं। इनके मध्य भी कई तरह के संबंध बने, कई बार काफी हिंसक भी। मगर वह दौर भी आया जब इनमें एकात्मकता की जरूरत समझी गई। शिव ने राम को अपना पूज्य बताया तो राम ने भी समुद्र पार करने से पूर्व शिव की पुजा की। और इन रूपकों से इनके भक्तों में भी एकता बढ़ी। आज यह अलग कर पाना कठिन है कि कौन किस संप्रदाय का उपासक है। एक ही घर में पिता विष्णु की पुजा कर रहे हैं तो माँ शिव की। मातृ शक्ति की पुजा भी अब सर्वस्वीकार्य है। निःसंदेह इस एकात्मकता के पीछे हिंदु धर्म को आंतरिक रूप से ही बौद्ध-जैन धर्मों आदि से मिल रही चुनौतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी। विदेशी आक्रमणों के दौर में इन धाराओं को भी जोड़ने की जरूरत महसूस की गई और शंकराचार्य आदि विचारकों के नेतृत्व में इनके धार्मिक एकीकरण के जो प्रमुख प्रयास हुये उनके नतीजों में एक यह भी था कि बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बुद्ध, भगवान विष्णु के दसवें अवतार के रूप में स्वीकार लिए गए। यह सारी प्रक्रिया काफी शांति और सौहाद्र के साथ संपन्न हुई होगी ऐसा भी नहीं है। बोधि वृक्ष कट गया, शास्त्रार्थों में हारने वाले को आत्मदाह करना पड़ा तो समर्थकों के बीच हिंसा भी हुई ही होगी। मगर शांति की जरूरत को समझते हुये यह प्रक्रिया उसे पाने में सफल तो रही ही।
 
गांधी जी ने भी कहा सत्य ही ईश्वर है, और ईश्वर एक ही हैं; तो उसके नाम पर लड़ना कैसा ! जब हमारे यहाँ इतनी धाराओं और प्रतिनिधि चेहरों को एक सूत्र में सफलतापूर्वक जोड़ा जा सकता है तो क्या औरों के लिए यह इतना कठिन है ! मगर जरूरत तो पहले एकजुटता की जरूरत स्वीकार करने की है। अलग-अलग धर्म पहले खुद में यह प्रक्रिया संपन्न कर लें तो उसके बाद उनके बीच भी एकात्मकता लाने की कोशिश हो सकती है। आखिर ‘सत्यमेव जयते’ और सत्य तो एक ही है...

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