घुमने और जानकारियों का संग्रह करने के इच्छुक मेरे जैसे लोगों के लिए दिल्ली एक आदर्श जगह है। जिसने हिंदुस्तान को बार-बार बनते-बिगड़ते, बिखरते - उभरते देखा हो, वहां का चप्पा- चप्पा इतिहास के एक अध्याय का किस्सा सुना रहा होता है।
दिल्ली की महरौली में स्थित कुतुबमीनार की भी अपनी एक अलग ही दास्तान है। मामुलक वंश के कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा 12 वीं सदी के अंत में यानि सन 1193 में आरम्भ करवाया गया, परन्तु वो केवल इसका आधार ही बनवा पाया। उसके उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने इसकी तीन मंजिलें और बढ़वायीं। 1368 ई। में फीरोजशाह तुगलक ने पाँचवीं और अन्तिम मंजिल बनवाई। निर्माताओं की यह विविधता इसकी निर्माण शैली में भी झलकती है। मीनार की वास्तु कला में 20 प्राचीन जैन मंदिरों के ध्वन्शावशेष का भी इस्तेमाल किया गया है।
मीनार के परिसर में विश्व प्रसिद्ध 'लौह स्तम्भ' भी स्थित है, इस स्तम्भ को पीछे की ओर दोनों हाथों से छुने पर मुरादें पूरी होने की भी मान्यता है। मगर अब इसे लोहे की जाली से घेर दिए जाने के कारण यह प्रयास मनसः ही किया जा पा रहा है।
यहाँ आ कर इतिहास को एक ओर रख थोडी देर मैं गुम हो गया देव साहब और नूतन के साथ 'दिल के भंवर की पुकार में '। अनायास ही मैंने अपने मोबाइल में यह गीत ऑन कर दिया और थोडी ही देर में पूरा परिसर 'देवमय' हो गया था। यही तो जादू है देवसाहब की अदायगी और पुराने गीतों की मिठास का। इसी जादू में खोया मैं चल पड़ा अगले सफ़र की ओर- जिसके बारे में फिर कभी।
(टिप्पणी के रूप में कोई पॉडकास्ट पर इस गीत को सुना दे तो क्या बात हो!)
स्रोत- विकिपेडिया,
तस्वीर- साभार Google