वाकई एक कालजयी रचना देश, काल और भाषा की सीमाओं से परे होती है, और इसे एक बार फिर साबित किया दिल्ली में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा ( NSD ) द्वारा आयोजित 13 वें 'भारत रंग महोत्सव' में मंचित नाटक 'एन अन सोल अमारिलो' (In a Yellow Sun : Memories of an Earthquake) ने. बोलिविया की नाट्य संस्था टीटरो डी लांस एनडस द्वारा स्पेनिश भाषा में एक घंटे, दस मिनट का यह नाटक 9 जनवरी की शाम 5:30 पर एल. टी. जी. ऑडिटोरियम; नई दिल्ली में मंचित किया गया. दर्शकों की सुविधा के लिए टेलीविजन स्क्रीन पर इसके अंग्रेजी शब्दानुवाद भी उपलब्ध थे.
निर्देशक कैशर ब्री का यह नाटक 22 मई 1998 को बोलीविया में आये एक विनाशकारी भूकंप की पृष्ठभूमि में निर्मित है. यह नाटक जहाँ एक ओर भूकंप के महाविनाश और भीषणता, उससे प्रभावित हुई आम जनता के सरोकारों को दर्शाता है; वहीँ दूसरी ओर पुनर्वास और राहत के लिए मुहैया राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय सहायता की सरकारी और प्रशासनिक लुट - खसोट, भ्रष्टाचार और पीडितों से दुर्व्यवहार जैसी कड़वी सच्चाई को भी सामने लाता है. यह पटकथा और ये दृश्य कहीं से भी विदेशी पृष्ठभूमि से होने का आभास नहीं देते, बल्कि देखने वाला प्रत्येक आम दर्शक चाहे वो किसी भी देश का हो अपने परिवेश को इस प्रस्तुति से जोड़ कर देखने लगता है.
शायद तभी नाटक के क्लाईमेक्स के करीब मंच पर उतरे नेताओं के उलजलूल बयानबाजियों पर हूटिंग के रूप में कागज के गोले फेंकता आम दर्शक कहीं - न - कहीं अपने राजनीतिक विद्रूप पर भी प्रहार कर अपना आक्रोश निकाल रहा होता है. पीड़ित जनता को आंसू पोंछने के लिए रुमाल देने, मैक्डोवेल खुलवाने के वादे जैसे प्रसंग हास्य की जगह गहरा कटाक्षपूर्ण व्यंग्य करते हैं. ब्रेकिंग न्यूज़ का भूखा और मानवीय संवेदनाओं से बेपरवाह मीडिया का रूप इस नाटक में भी सामने आ ही जाता है.
नाटक के कारुणिक दृश्यों में एक अहम दृश्य है जब एक व्यक्ति अपनी बेटी के मलबे में दब जाने का वर्णन कर रहा होता है और बगल में एक मेज पर पावडर से एक बच्ची कि छवि बना, मेज को उलट उसके मिटटी में मिल जाने को निरुपित किया जाता है.
संजोग से इस समय प्राप्त दिल्ली प्रवास के ये संस्मरण, ये अनुभव मेरे लिए काफी अहम रहेंगे. इस नाटक ने इस तथ्य को भी स्पष्ट किया कि आम और संवेदनशील जनमानस किसी सीमित सीमा में ही नहीं बल्कि सारे विश्व में ही लगभग एक सी ही व्यवस्थाजनक परिस्थितियों का सामना कर रहा है. व्यवस्था में परिवर्तन का एक सफल प्रयास निश्चित रूप से पुरे विश्व में ही एक नई लहर उत्पन्न कर देगा जैसा कि कभी हमने 'गांधीयुग' में करके दिखाया था. लेखक, कवि, नाटककार और बुद्धिजीवी वर्ग शायद ऐसी किसी वैश्विक पहल के बारे में भी विचार करें.
(तसवीरें- नेट तथा अपने मोबाइल कैमरे की सीमित क्षमता के साथ)
6 comments:
एक सकारात्मकता की ओर कदम बढ़ाती पोस्ट अच्छी लगी
रंगकर्म पर कम ही लिखा जाता है. सुंदर प्रस्तुति है आपकी. आभार.
wakai mai bhawbao ko samjhne ki liya bhasha ki jarurat nahi hoti hai...
बहुत सुंदर चित्रंन किया आप ने इस नाटक का धन्यवाद
रंग महोत्सव से परिचित कराने का शुक्रिया।
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कादेरी भूत और उसका परिवार।
मासिक धर्म और उससे जुड़ी अवधारणाएं।
तेरहवें रंग महोत्सव की यह प्रस्तुति जोरदार ढंग से यह स्थापित करती है की सांस्कृतिक और सभ्यताई आवरणों के भीतर रक्त अस्थिमय और संवेदना का रंग समूची मानव जाति का एक ही है और त्रासद पूर्ण स्थितियों में सबकी अनुभूति और दुर्दशाएं एक ही सी हैं -अच्छी प्रस्तुति !
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