इन्टरनेट की असुविधा की वजह से मोबाइल पोस्टिंग को विवश हूँ. मगर इस पोस्ट को modified जरुर कर दूंगा. प्रेम माह पर जारी श्रंखला का आज काफी globally accepted दिन भी है; साथ ही आज ' Venus of the Indian Cine Screen' "मधुबाला" का जन्मदिन भी है.
ऐसे में जब दिल्ली में सूरज चाचू भी वैलेंटाइन दिवस मनाने के मूड में हों, तब
हरेक सिद्धांत में प्रेम की झलक दिखना अनाशयोक्ति नहीं मानी जानी चाहिए.
प्रस्तुत हैं कलाम साहब की कुछ पंक्तियाँ; भावार्थ तथा विवेचना के लिए आप स्वयं ही सक्षम हैं . :-)
"यदि आप किसी को कुछ लिखकर बताना चाहते हैं,
तो लिखने के बजाये उससे बात करना ज्यादा बेहतर है;
यदि आप किसी से बात करना चाहते हैं,
तो बात करने के बजाये उससे मिलना सदैव बेहतर होता है ;
अंग्रेजी साहित्य में नाथानियेल हौथोर्न एक प्रतिष्ठित नाम है. 4 जुलाई, 1804 को मैसाचुसेट्स में जन्मे हौथोर्न में लेखन प्रतिभा की झलक बाल्यकाल से ही दिखने लगी थी, जो समय के साथ परवान चढती गई. जुलाई 1842 में, 38 वर्ष की आयु में उनका विवाह 32 वर्षीय सोफिया से हुआ; मगर उस युग की मान्यताओं के विपरीत उम्र उनके संबंधों की मधुरता के आड़े कभी नहीं आई. प्रसिद्ध प्रेम पत्रों की श्रृंखला में शामिल पत्रों में एक - हौथोर्न द्वारा शादी की पहली सालगिरह पर लिखे पत्र - में लिखा कि -
"We were never so happy as now—never such wide capacity for happiness, yet overflowing with all that the day and every moment brings to us. Methinks this birth-day of our married life is like a cape, which we have now doubled and find a more infinite ocean of love stretching out before us."
1846 में कस्टम विभाग में नौकरी करते हुए हौथोर्न अपनी लेखनी की निरंतरता में बाधाओं और अनियमितता से निराश से थे. उन्होंने अपनी मनःस्थिति स्पष्ट करते हुए एक बार लिखा था -
" I am trying to resume my pen... Whenever I sit alone, or walk alone, I find myself dreaming about stories, as of old; but these forenoons in the Custom House undo all that the afternoons and evenings have done. I should be happier if I could write. "
राजनीतिक तथा प्रशासनिक परिवर्तन तथा कुछ पारिवारिक परिस्थितिवश 1848 में उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी.
इन परिस्थितियों में सोफिया उनके जीवन की वास्तविक साझदार बनकर उभरीं. उन्होंने हौथोर्न को हताशा और असफलता के दौर से बाहर निकल धैर्यपूर्वक संघर्ष करने को प्रेरित किया. हौथोर्न की स्वाभाविक प्रतिभा
लेखन की ओर प्रेरित करते हुए उन्होंने उन्हें पुनः रचंनाशिलता की ओर उन्मुख होने का सुझाव दिया. मगर पूर्णतः लेखन को समर्पित होते हुए हौथोर्न को पारिवारिक जिम्म्मेदारियों का भाव भी रोक रहा था. सोफिया के पास इसका भी समाधान था. हौथोर्न पर अपने आत्मिक विश्वास औरभरोसे का परिचय देते हुए उन्होंने आश्वस्त किया कि वो जानती थीं कि अपनी बुद्धिमता के फलस्वरूप वे एक दिन साहित्य रचना से अवश्य ही जुडेंगे. अपनी बचत से वो एक साल तक घर की जिम्मेदारी आसानी से उठा सकती हैं.
पति के अपने प्रति प्रेम, आत्मविश्वास तथा समर्पण ने हौथोर्न को एक बार फिर लेखन से और भी दृढता से जुडने को प्रेरित किया, और परिणामस्वरूप लगभग एक वर्ष की अवधि में ही मध्य मार्च, 1850 तक विक्टोरिया युग की एक प्रमुखतम रचना'द स्कारलेट लेटर' (The Scarlet Letter)प्रकाशित हुई.
मगर उनके साहित्यिक सफर में उनकी पत्नी सोफिया की भूमिका, प्रेरणा और योगदान को कभी नहीं भुलाया
जा सकता. अन्यथा आपसी मतभिन्नता, ग़लतफ़हमी और परस्पर भावनाओं की साझेदारी में हिचकिचाहट तो साधारणतः रिश्तों को साल-दर-साल सिर्फ निभा लेने भर को ही संबंधों की सफलता मानती है.
शायद यही होता है सच्चा प्रेम जो एक-दूसरे को समझने, सम्मान और आदर देने से ही परिपक्व होता है.
चलते-चलते प्रेम गीतों विशेषकर गजलों को अपनी मखमली आवाज से असीम गहराई देने वाले तलत महमूद साहब (जिनका कि आगामी 24 फरवरी को जन्मदिन भी है) की दिलकश आवाज में एक गीत :
इटावा (उत्तर प्रदेश) के पुरावली गाँव में जन्मे पद्मश्री गोपालदास नीरज हिंदी साहित्य के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं. ( दुर्भाग्य से इनके जन्मदिन की तिथी 4 जनवरी या 8 फरवरी; में मुझे कुछ संशय है, अलग-अलग सन्दर्भों में पृथक तिथियाँ मिल रही हैं ) ये हिंदी के उन चंद साहित्यकारों में हैं जिन्होंने फिल्म गीत लेखन को भी अपनी कलम से समृद्ध किया है.
मंचीय कवि सम्मेलनों में इनकी प्रखर उपस्थिति रही है, और इसके ये अप्रतिम स्तंभ मने जाते हैं. यूँ तो इन्होने साहित्य और कविताओं के माध्यम से हरेक पहलु को स्पर्श किया है, मगर आम जनता उन्हें प्रेम के अन्यतम गायक के रूप में ही देखती है, तो युवा पीढ़ी को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले कवियों में बच्चन जी के साथ इन्ही का नाम लिया जाता रहा है.
कविवर दिनकर ने इन्हें 'हिंदी की वीणा' कहा था.
हिंदी सिनेमा को अपने गीतों से इन्होने काफी समृद्ध किया. देव आनंद और राजकपूर जैसे फिल्मकारों ने इनकी प्रतिभा का हमेशा सम्मान किया, मगर नीरज जी ने खुद ही स्वयं को सिने जगत से दूर कर लिया. इसके लिए फिल्म जगत की राजनीति और गुटबाजी भी जिम्मेदार थी कि जिसमें यह अफवाह फैला दी गई थी कि 'इनके गाने तो हिट हो जाते हैं, मगर फिल्में फ्लॉप हो जाती हैं (!!!)'. फिर भी कुछ फिल्मकारों ने इनपर से अपना भरोसा टूटने नहीं दिया. देव साहब के नए प्रोजेक्ट्स में अभी भी नीरज जी द्वारा गीत लिखे जा रहे हैं.
एक नजर इनके कुछ यादगार फ़िल्मी सफर पर -
लिखे जो खत तुझे ... (कन्यादान)
ऐ भाई जरा देख के चलो ... (मेरा नाम जोकर)
दिल आज शायर है ... (गैम्बलर)
जीवन की बगिया महकेगी ... (तेरे मेरे सपने)
मेघा छाए आधी रात ... (शर्मीली)
खिलते हैं गुल यहाँ... (शर्मीली)
फूलों के रंग से ... (प्रेम पुजारी)
शोखियों में घोला जाये ... (प्रेम पुजारी)
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे ... (नई उमर की नई फसल)
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उनके सुदीर्घ और स्वस्थ जीवन की शुभकामनाओं के साथ यह कामना भी कि वो यूँ ही अपने कलम से गीत रचते रहें.
उनकी एक कविता का आनंद उनकी ही आवाज में यहाँ भी ले सकते हैं.
'हमदोनों' को रंगीन करना देव साहब का सपना था और उनके इस ख्वाब को सच होता देखने वालों में आखिरकार मैं भी शामिल हो ही गया. आज ही रात 'हमदोनों' का रंगीन संस्करण देखकर आया हूँ. दिल्ली के किसी थिएटर में अब तक देखी यह मेरी पहली फिल्म थी, मगर पिछले तीन महीनों में जो दो फिल्में हॉल में देखी हैं उनकी तुलना में आज दर्शकों की संख्या देख काफी खुशी हुई.
इससे पहले बनारस में ही मैंने 'मुग़ल-ए- आजम' का रंगीन संस्करण देखी थी, मगर इसकी सफलता के पीछे ऐतिहासिक और मजबूत कहानी, संगीत, पृथ्वी राज कपूर - दिलीप कुमार जैसे अदाकारों का अभिनय, मधुबाला का आकर्षण और त्योहारों की छुट्टियों का माहौल जैसे कई कारक कार्य कर रहे थे. मगर 'हमदोनों' की
यह सफलता सिर्फ - और - सिर्फ देव साहब के जुनून और समर्पण की सफलता है. यह सिर्फ उनके व्यक्तित्व का सम्मोहन और जादू ही है जो उनके चाहने वालों को इस 'ब्रांड नेम' की ओर खिंच रहा है.
'नेहरु प्लेस' के 'सत्यम सिनेप्लेक्स' में भी मेरी नजर में अन्य फिल्मों की तुलना में भी इसे ही ज्यादा दर्शक मिले. दर्शकों में निश्चित रूप से पुरानी पीढ़ी के लोग ही ज्यादा थे, मगर कुछ बच्चों / किशोरों की सुनाई दे रही प्रतिक्रियाओं ने संकेत दे दिया कि देव साहब के प्रंशसकों की एक और पीढ़ी तैयार हो चुकी है.
मेरे बगल की सीट पर बैठे एक सज्जन ( As usual !) ने मुझसे पूछा भी कि - " आप तो देव आनंद के काफी बाद की जेनरेशन के हैं ! " मेरा जवाब था - 'हमारी पीढ़ी शायद उनकी जेनरेशन की नहीं मगर वो तो हमारी जेनरेशन के साथ चल रहे हैं". और शायद इसी मानसिकता और अंदाज के कारण ही वो अब तक अपने समकालिकों की तरह अप्रासंगिक नहीं हुए हैं.
फिल्म की शुरुआत में ही देव आनंद - साधना के "अभी न जाओ छोड़ कर' गीत की शुरुआत के साथ ही देव आनंद को देख स्त्री स्वरों की फुसफुसाहटें और 'हाउ हैण्डसम' जैसी ध्वनियों का थिएटर में गुंजना एक बार फिर स्पष्ट कर गया कि देव साहब सदाबहार थे, हैं और रहेंगे.
उन्होंने हाल ही में अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि यदि 'हमदोनों' सफल रही और दर्शकों की इच्छा रही तो वो अपनी अन्य फिल्मों को भी रंगीन कर देंगे. मेरी कामना है कि ऐसा ही हो ताकि 'देव आनंद - नूतन', 'देव आनंद - मधुबाला' की कैमिस्ट्री को एक बार फिर हमें रजत पटल पर देखने का अवसर मिले.
दर्शकों की आज की प्रतिक्रियाओं को देख एक सवाल भी मन में उठ रहा है कि पुरानी और यादगार फिल्में यूँ ही लगातार प्रदर्शित होती रहीं तो 'शीला', मुन्नी' , 'रजिया' आदि-आदि का क्या होगा ???
Science Bloggers Association पर मेरी एक पोस्ट से हिंदुस्तान में प्रकाशित एक लेख
'हमदोनों' (रंगीन) के एक खूबसूरत ट्रेलर की एक छोटी सी झलक यहाँ भी ( यू ट्यूब से )
जी हाँ, इस पोस्ट के द्वारा एक नई श्रृंखला की शुरुआत के साथ ही इस ब्लॉग पर मेरे पोस्ट्स की सेंचुरी भी पूरी हो रही है. अब तक के इस सफर में आप लोगों के साथ देते जाने का धन्यवाद.
तो अब इस श्रृंखला में आपको ले चल रहा हूँ अपने साथ एक प्रेममय सफर पर.
यूँ तो प्रेम का कोई देश, काल और सीमाएँ नहीं होतीं, मगर प्रकृति के उद्दात स्वरुप को देखते हुए वसंत को ही प्रेम के माह के रूप में सवाभौमिक मान्यता प्राप्त है. प्रेम का कोई निश्चित स्वरुप भी नहीं है, यह तो सिर्फ एक भावनात्मक एहसास है, जो किसी में भी, कभी भी उभर सकता है. सत्य और काल्पनिक, सफल - असफल प्रेम कथाओं की एक वैश्विक परंपरा रही है, मगर यहाँ यह बात याद रखने की जरुरत है कि हार-या-जीत प्रेमियों कि हुई है - प्रेम की नहीं. प्रेम तो सिर्फ प्रेम है - हार/जीत, सही/गलत जैसे मानकों से कहीं ऊपर.
इस श्रृंखला में मेरा प्रयास रहेगा ऐसी प्रेम स्मृतियों को याद करने का जिन्होंने हमारी सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत को कहीं-न-कहीं से प्रभावित किया है.
हमीदा बानो -हुमायूँ
हमीदा बानोका नाम पहलेदेने का कारण उस अमर प्रेम की श्रृंखला के पहले अध्याय को स्वीकार करना है जिसकी परिणति दुनिया को प्रेम की प्रतिनिधि रचना 'ताज' के रूप में मिली.
हुमायूँ का जीवन संघर्ष किसी से छुपा नहीं है, मगर वो हमीदा ही थीं जिसने हर परिस्थिति में उसका साथ निभाया. हुमायूँ की तरह हमीदा का जीवन भी दुरूह और कठिनतम यात्राओं से भरा रहा, मगर वो हर कदम पर हुमायूँ के साथ रही. पत्नी और साम्राज्ञी की भूमिका निभाते हुए भी हमीदा का एक प्रमुख योगदान एक ऐसी माँ के रूप में याद किया जायेगा जिसने अकबर जैसी हस्ती को जन्म दिया और उसके व्यक्तित्व के विकास पर अपनी गहरी छाप छोड़ी.
हमीदा के व्यक्तित्व का एक उल्लखनीय पहलु तब सामने आता है जब हमें पता चलता है कि उसने प्रारंभ में बाबर की बहू और हुमायूँ की पत्नी बनने से प्रारंभ में इनकार कर दिया था, मगर लगातार आग्रह और विशेषकर हुमायूँ की बहन गुलबदन बेगम के समझाने पर विवाह को रजामंद हो गईं. कहते है की उनकी आपत्ति इस बात को लेकर थी कि शहंशाहों के जीवन में स्त्रियों को समुचित स्थान और सम्मान नहीं मिलता. उस दौर में स्त्री के अधिकार और सम्मान के लिए आवाज उठाने की उनकी भावना को गुलबदन बेगम ने अपनी पुस्तक 'हुमायूँनामा' में इस रूप में वर्णित किया है कि -
"I shall marry someone; but he shall be a man whose collar my hand can touch, and not one whose skirt it does not reach."
हुमायूँ की मृत्यु के बाद उसकी याद और उसके प्रति अपने प्रेम की अभिव्यक्ति का एक शाहकार है 'हुमायूँ का मकबरा' - जो कि भारतीय वास्तुकला पर फारसी प्रभाव का पहला उदाहरण बना.
इस ऐतिहासिक प्रेम कहानी को महबूब खाननिर्देशित और अशोक कुमार - नर्गिश अभिनीत 'हुमायूँ' (1945)द्वारा सेल्युलाईड पर भी उतरा गया था.
चलते - चलते प्रसिद्ध कवि सोम ठाकुर जी की एक प्रेम कविता भी सिर्फ आपकी आपकी नजर :
लौट आओ
लौट आओ (मांग के सिंदूर)की सौगंध तुमको
नयन का सावन निमंत्रण दे रहा है।
आज बिसराकर तुम्हें कितना दुखी मन यह कहा जाता नहीं है।
मौन रहना चाहता, पर बिन कहे भी अब रहा जाता नहीं है।
मीत! अपनों से बिगड़ती है बुरा क्यों मानती हो?
लौट आओ प्राण! पहले प्यार की सौगंध तुमको
प्रीति का बचपन निमंत्रण दे रहा है।
रूठता है रात से भी चांद कोई और मंजिल से चरण भी
रूठ जाते डाल से भी फूल अनगिन नींद से गीले नयन भी
बन गईं है बात कुछ ऐसी कि मन में चुभ गई, तो
लौट आओ मानिनी! है मान की सौगंध तुमको
बात का निर्धन निमंत्रण दे रहा है।
चूम लूं मंजिल, यही मैं चाहता पर तुम बिना पग क्या चलेगा?
मांगने पर मिल न पाया स्नेह तो यह प्राण-दीपक क्या जलेगा?
यह न जलता, किंतु आशा कर रही मजबूर इसको
लौट आओ बुझ रहे इस दीप की सौगंध तुमको
ज्योति का कण-कण निमंत्रण दे रहा है।
दूर होती जा रही हो तुम लहर-सी है विवश कोई किनारा,
आज पलकों में समाया जा रहा है सुरमई आंचल तुम्हारा
हो न जाए आंख से ओझल महावर और मेंहदी,
लौट आओ, सतरंगी श्रृंगार की सौगंध तुम को
अनमना दर्पण निर्मंत्रण दे रहा है।
कौन-सा मन हो चला गमगीन जिससे सिसकियां भरतीं दिशाएं
मधुर भावनाओं की सुमधुर, नित्य बनाता हूँ हाला;
भरता हूँ उस मधु से अपने, ह्रदय का प्यासा प्याला.
उठा कल्पना के हाथों से, स्वयं उसे पी जाता हूँ;
अपने ही मैं हूँ साकी, पीने वाला मधुशाला.