Friday, December 26, 2014
मैंने प्यार किया के 25 बरस...
Sunday, September 21, 2014
सिनेमा के साथ एक प्रयोग...
सिनेमा कहानी कहने का सबसे प्रभावी और सशक्त माध्यम है। आपके पास कोई ठोस विचार हो तो उसे अनगिनत लोगों तक संप्रेषित करने में इस विधा का कोई जवाब नहीं। मायानगरी की चकाचौंध में कुछ चेहरे ऐसे भी हैं जो इस विधा का प्रयोग कर रहे हैं एक मिशन के साथ। मिशन है आम लोगों में सोच का एक स्तर विकसित करना, उनके मनोमस्तिष्क को अपने विचारों से उद्द्वेलित कर देना जिससे कि यह लौ दर लौ आगे बढती रहे। यहाँ मैं बात कर रहा हूं श्रीराम डाल्टन और उनकी टीम की। निर्माता-निर्देशक सुभाष घई, सिनेमेटोग्राफर अशोक मेहता जैसी हस्तियों के साथ काम कर रहे श्रीराम ने स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू किया, नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे कलाकार को लेकर कुछ शौर्ट फिल्म्स बनाईं तो कईयों के हुनर को उभारा भी। हाल ही में लुप्त हो रही विधा 'बहुरुपिया' पर बनारस की पृष्ठभूमि में 'द लॉस्ट बहुरुपिया' बनाई जिसे राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी जी के हाथों राष्ट्रीय पुरष्कार भी मिला। अब वो झाड़खंड में पिछले कुछ दशकों में बदली सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों पर 'द स्प्रिंग थंडर' का निर्माण कर रहे हैं। लीक से अलग राह पर चलने वालों के आगे परेशानियाँ भी कम नहीं आतीं, मगर ये उनलोगों में हैं जो इनसे घबड़ा पीछे नही हटते बल्कि खुद तो आगे बढ़ते ही हैं दूसरों को सहारा दे रास्ता भी बनाते हैं। अब ये इस क्षेत्र में एक नया प्रयोग कर रहे हैं। झाड़खंड के आम लोगों को सिनेमा से जोड़ने का। मात्र दर्शक के रूप में नहीं बल्कि उनकी अपनी कहानी को कागज से लेकर परदे तक उकेरने में भी। प्रोजेक्ट छोटा और सहज नहीं मगर सपना और लगन उससे भी बड़ी है। झाड़खंड में समस्याओं की कमी नहीं तो इनके पास हौसलों की भी कमी नहीं। संसाधनों की कमी राह में थोड़े रोड़े भले डाल ले, राह रोक नहीं पाती। परिंदों की तरह इनकी परवाज परवान चढ़ रही है। आप भी जुड़ सकते हैं इनके साथ इनके इस प्रयास मेंयदि आपके पास भी वही जज्बा और जज्बात हों जो इनके पास है....
(http://m.bhaskar.com/news/referer/521/JHA-RAN-national-award-for-the-film-directed-by-sriram-dalton-4602721-PHO.html?referrer_url=https%3A%2F%2Fwww.google.co.in%2F)
Tuesday, September 9, 2014
अशोक चक्र से सम्मानित एअर होस्टेस नीरजा भनोट
यूँ तो आधुनिक भारत के इतिहास में भी वीरता और बहादुरी के क्षेत्र में महिलाओं का योगदान कम नहीं रहा है, मगर यह जिक्र खास बन जाता है उस वीरांगना के कारण जो कि एक एअर होस्टेस थीं और जिन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च असैन्य नागरिक सम्मान 'अशोक चक्र' से सम्मानित किया गया। 7 सितम्बर 1964 को चंड़ीगढ़ के हरीश भनोत जी ले यहाँ जन्मी इस बच्ची को वायुयान में बैठने और आकाश में उड़ने की प्रबल इच्छा थी।
नीरजा ने अपनी वो इच्छा 16 जनवरी 1986 को एयर लाइन्स पैन एम ज्वाइन करके पूरी की और वहां बतौर एयर होस्टेस काम करने लगीं। 5 सितम्बर 1986 को पैन एम 73 विमान कराची, पाकिस्तान के एयरपोर्ट पर अपने पायलेट का इंतजार कर रहा था। विमान में लगभग 400 यात्री बैठे हुये थे। अचानक 4 आतंकवादियों ने पूरे विमान को गन प्वांइट पर ले लिया। उन्होंने पाकिस्तानी सरकार पर दबाव बनाया कि वो जल्द से जल्द विमान में पायलट को भेजे। किन्तु पाकिस्तानी सरकार ने मना कर दिया। तब आतंकियों ने नीरजा और उसकी सहयोगियों को बुलाया कि वो सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्रित करे ताकि वो किसी अमेरिकन नागरिक को मारकर पाकिस्तान पर दबाव बना सके। नीरजा ने सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्रित किये और विमान में बैठे अमेरिकी यात्रियों के पासपोर्ट छुपाकर बाकी सभी आतंकियों को सौंप दिये। धीरे-धीरे 16 घंटे बीत गये। पाकिस्तान सरकार और आतंकियों के बीच वार्ता का कोई नतीजा नहीं निकला। अचानक नीरजा को ध्यान आया कि प्लेन में फ्यूल किसी भी समय समाप्त हो सकता है और उसके बाद अंधेरा हो जायेगा। उसने अपनी सहपरिचायिकाओं को यात्रियों को खाना बांटने के लिए कहा और साथ ही विमान के आपातकालीन द्वारों के बारे में समझाने वाला कार्ड भी देने को कहा। नीरजा को पता लग चुका था कि आतंकवादी सभी यात्रियों को मारने की सोच चुके हैं।
उसने सर्वप्रथम खाने के पैकेट आतंकियों को ही दिये क्योंकि उसका सोचना था कि भूख से पेट भरने के बाद शायद वो शांत दिमाग से बात करें। इसी बीच सभी यात्रियों ने आपातकालीन द्वारों की पहचान कर ली। नीरजा ने जैसा सोचा था वही हुआ। प्लेन का फ्यूल समाप्त हो गया और चारो ओर अंधेरा छा गया। नीरजा तो इसी समय का इंतजार कर रही थी। तुरन्त उसने विमान के सारे आपातकालीन द्वार खोल दिये। योजना के अनुरूप ही यात्री तुरन्त उन द्वारों के नीचे कूदने लगे। वहीं आतंकियों ने भी अंधेरे में फायरिंग शुरू कर दी। किन्तु नीरजा ने अपने साहस से लगभग सभी यात्रियों को बचा लिया था। कुछ घायल अवश्य हो गये थे किन्तु ठीक थे। किन्तु इससे पहले कि नीरजा खुद भागती तभी उसे बच्चों के रोने की आवाज सुनाई दी। दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना के कमांडो भी विमान में आ चुके थे।
इधर नीरजा उन तीन बच्चों को खोज चुकी थी और उन्हें लेकर विमान के आपातकालीन द्वार की ओर बढ़ने लगी। तभी एक आतंकवादी उसके सामने आ खड़ा हुआ। नीरजा ने बच्चों को आपातकालीन द्वार की ओर धकेल दिया और स्वयं उस आतंकी से भिड़ गई। कहाँ वो दुर्दांत आतंकवादी और कहाँ वो 23 वर्ष की पतली-दुबली लड़की। आतंकी ने कई गोलियां उसके सीने में उतार डाली। नीरजा ने अपना बलिदान दे दिया। आतंकियों को पाकिस्तानी कमांडों ने गिरफ्तार कर लिया, किन्तु वो नीरजा को न बचा सके। उनपर बाद में मुकदमा चला और 1988 में उन्हें मौत की सजा सुनाई गई जो बाद नें उम्रकैद नें बदल गई। नीरजा के बलिदान के बाद भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'अशोक चक्र' प्रदान किया तो वहीं पाकिस्तान की सरकार ने भी नीरजा को 'तमगा-ए-इन्सानियत' प्रदान किया। 2004 में नीरजा भनोत पर डाक टिकट भी जारी हो चुका है।
स्वतंत्र भारत की इस महानतम विरांगना को नमन.....
Friday, September 5, 2014
शिक्षक दिवस के अवसर पर गुरु द्रोणाचार्य का स्मरण
यूँ तो गुरु द्रोण को आज के दिन थोड़ी आलोचना के साथ ही याद किया जाता है। शिक्षा को राजकुल तक सीमित करने, व्यवसायीकरण करने और एकलव्य के साथ अन्याय करने तक के लिए भी... मगर कई मायनों में उनकी तुलना आज के शिक्षा के व्यवसायियों से की भी नहीं जा सकती। खैर फ़िलहाल चर्चा एकलव्य की। उनके ऊपर एकलव्य का अंगूठा गुरु दक्षिणा में मांग लेने के आरोप लगाये जाते हैं। मगर एकलव्य जैसे शिष्य के साथ कोई गुरु ऐसा कैसे कर सकता है ! कई बार गुरु की कठोरता के पीछे कुछ और ही आशय होता है। प्राचीन परम्पराओं में तीर चलाने की कई विधियाँ प्रचलित थीं। इनमें अंगूठे का प्रयोग वाली विधि शेष से कमतर ही मानी जाती थी। अंगूठे को तीर चलाने की निरंतरता में बाधक ही माना जाता था। आज भी आधुनिक तीरंदाज सामान्यतः अंगूठे का प्रयोग नहीं करते। तो कहीं ऐसा तो नहीं कि जिसप्रकार एकलव्य ने बिना द्रोण को बताये उनसे ज्ञान लिया उसी प्रकार गुरु द्रोण ने भी अपनी सीमाओं के बावजूद और जगत के तमाम लांक्षण उठाते हुए भी एकलव्य को उसकी गुरुभक्ति का प्रतिदान दे ही दिया, जो कुछ न कहते हुए भी उसके भविष्य के लिए बेहतर ही था। अंगूठे के बिना भी उसकी लगन उसे तीरंदाजी के अभ्यास के लिए प्रेरित करती ही और अब उसके पास वही विकल्प होता जो अन्य राजपुरुषों के पास थे। अन्यथा यदि गुरु द्रोण उससे उसकी हथेली भी मांग ले सकते थे और यहां शायद ही कोई हो जो कहे कि एकलव्य इंकार कर देता...
इससे यह भी स्पष्ट है कि गुरु-शिष्य संबंध में दोनों की योग्यता ही नहीं समर्पण का भी कितना महत्व है.....
Friday, August 29, 2014
गणेश चतुर्थी या ढेलहिया चौथ
आज गणेश चतुर्थी है। और संजोग ऐसा कि हर पर्व-त्यौहार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले चांद को आज देखना भी वर्जित है। कहते है इससे कलंक लगता है। जब इस भूल के कारन स्वयं श्रीकृष्ण पर चोरी का आरोप लग गया तो आमजनों की क्या बिसात है !
प्रचलित कथा के अनुसार एक बार गणेश जी अपने जन्मदिन के अवसर पर अपने एक प्रिय भक्त के यहाँ भोजन के आमंत्रण पर गए। वहाँ उन्होंने भरपेट भोजन किया और अपने आराधकों को सुख-प्राप्ति के भरपूर आशीर्वाद दिए। इसके बाद वे अपनी सवारी चूहे के ऊपर चढकर शिवलोक की तरफ चल दिये कि तभी एक साँप ने उनका रास्ता काट दिया। चूहे तो साँप के प्रिय भोजन होते हैं। वैसे जिसके ऊपर श्री गणेश जी का आशीर्वाद हो उसे डरने की क्या जरूरत, परन्तु गणेश जी का सवारी भी था तो एक चूहा ही। वह साँप से बहुत डर गया और भाग खड़ा हुआ। गणेश जी लड़खड़ा कर गिर पड़े। रात का समय था और आसमान में चतुर्थी का चाँद चमचमा रहा था। यह दृश्य देखकर चाँद से रहा ना गया और जोर-जोर से ठहाके मारकर हँस पड़ा। यह देखकर गणेश जी के गुस्से का ठिकाना ना रहा। साँप को सबक सिखाने के बाद गणेश जी मखौल उड़ाते चाँद की तरफ दौड़ पड़े। गुस्से से लाल गणेश जी को देखकर चाँद भाग खड़ा हुआ और डरकर अपने महल में छिप गया।
रात्री का समय था। चाँद के छिप जाने के कारण चारों तरफ अँधेरा छा गया। पृथ्वी पर लोग परेशान हो गए। सभी देवों ने गणेश जी से धरती पर शांती लाने की प्रार्थना की और यह आग्रह किया कि चँद्रमा को क्षमा कर दें। अंततः गणेश जी पिघल गए और चाँद को अपने क्रोध से मुक्त किया। पर जाते-जाते उसे एक शाप भी दे गए। चूँकि चाँद एक चोर की तरह अपने महल में छुप गया था, जैसे उसने कोई अपराध किया हो। इसीलिए अगर कोई गणेश जी के जन्मदिन पर चाँद का दर्शन करेगा, तो वह भी चोर कहलाएगा। यही कारण है कि आज भी लोग गणेश चतुर्थी के अवसर पर चाँद की तरफ नहीं झाँकते।
चंद्र दर्शन दोष से बचाव :--
प्रत्येक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को चन्द्रदर्शन के पश्चात् व्रती को आहार लेने का निर्देश है, इसके पूर्व नहीं। किंतु भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रात्रि में चन्द्र-दर्शन (चन्द्रमा देखने को) निषिद्ध किया गया है। यदि जाने-अनजाने में चन्द्रमा दिख भी जाए तो निम्न मंत्र का पाठ अवश्य कर लेना चाहिए-
'सिहः प्रसेनम् अवधीत्, सिंहो जाम्बवता हतः।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्वमन्तकः॥'
इस दिन चन्द्रमा देख लेने पर उसके दोष के शमन हेतु श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के 57वेंअध्याय को पढें। जिसमें स्यमन्तकमणि के हरण का प्रसंग हैं।
मैथिल कवि विद्यापति ने भी इस विडंबना को सुन्दर अभिव्यक्ति दी है-
"कि हम सांझ क एकसर तारा, कि भादव चौथि क ससि।
इथि दुहु माँझ कवोन मोर आनन, जे पहु हेरसि न हँसि।।"
राधा कृष्ण की उपेक्षा से दुखी हैं। कहती हैं- क्या मैं शाम का एकाकी तारा हूँ (यह तारा उदासी का प्रतीक माना जाता है) या भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का चाँद? इन दोनों में मेरा मुँह किस तरह का है? न प्रभु मुझे देख रहे हैं न मुझ पर हँस ही रहे हैं?
शास्त्रों और कवियों की बातें अपनी जगह आप चाहें तो इस अवसर से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी बाँट सकते हैं...
Wednesday, July 23, 2014
ऑल इंडिया रेडियो की वर्षगांठ पर कुछ यादें...
Friday, June 20, 2014
धर्म का मूल स्वरूप
अक्सर सभ्यताओं के संघर्ष की बात कही जाती है- आजकल तो कुछ ज्यादा ही ज़ोर-शोर से। मगर क्या यह कोई नई बात है ? अलग-अलग विचारधाराओं के लोग जब साथ रहते हैं तो उसकी सर्वस्वीकार्यता के लिए संघर्ष होता ही है। इसे समझने के लिए बाहर कहीं देखने की खास जरूरत नहीं। और उनके जिक्र की भी उतनी जरूरत नहीं जहाँ संवाद की संभावना कम ही है। मगर समाधान है तो संवाद में ही और गनीमत है कि इस देश में तर्क और शास्त्रार्थ जैसे माध्यमों से संवाद की समृद्ध परंपरा रही है। कब तक रहेगी वो अलग विषय है। भारत तो विश्व गुरु रहा ही है और सभ्यता के प्रारंभिक दौर से ही कई मायनों में विश्व को दिशा दिखाता रहा है। ऐसे में यदि भारत को ही समझ लें तो काफी कुछ समझ सकते हैं। इसलिए अभी सिर्फ अपनी ही बात।
Thursday, February 27, 2014
शिव बारात: शिव जी के विराट व्यक्तित्व की झलक
शिव का एक अलग ही स्थान रहा है. अपने ऐतिहासिक महापुरुषों, राजाओं के
बारे में हमारी स्मृतियाँ चाहे कितनी भी क्षीण हों इन प्रतीक पुरुषों को
इस देश की करोड़ों जनता पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी स्मृतियों में सहेजती आई है तो
इसके पीछे इनका व्यक्तित्व और वो आदर्श भी हैं जो इस देश की संस्कृति के
आधार हैं. आज अपने प्रतीकों के छिद्रान्वेषण का आधुनकितामय प्रचलन जरुर
बढ़ा है, इस बारे में फिर कभी; मगर आज इतना तो जरुर कि शिव इन अन्य
प्रतीकों से इस मामले में जरुर थोड़े ज्यादा सौभाग्यशाली माने जायेंगे कि
हम इंसानों ने अपनी तमाम बौद्धिकता के साथ भी इनके चरित्र में कोई ऐसी
विसंगति ढूँढने में सफलता नहीं पाई जितनी हम राम-कृष्ण आदि में ढूंढ अपने
प्रगतिशील होने का आत्मसुख तलाशते हैं ! अपने परिवार के साथ वैभव से अलग,
पर्वतों की चोटी पर विराजमान, संसार से अलग मगर जब सृष्टि को जरुरत पड़े
तो गंगा को बाँधने से लेकर गरल पीने को भी तत्पर और इस मंथन के परिणामों
से पूर्णतः अनासक्त भी ! शायद तभी जब हमारे प्राचीन ऋषियों को भारत को एक
सूत्र में पिरोने का विचार आया तो प्रतीक शिव को ही बनाया. कश्मीर से
कन्याकुमारी..., 12 ज्योतिर्लिंग और इसके बाद भी और स्पष्टता के लिए सती
से जुड़े 52 शक्तिपीठ भी. और अपने विवाह की बारात भी निकाली तो ऐसी जिसमें
कृत्रिमता, और रस्म अदायगी करने वाले भद्र बाराती ही नहीं बल्कि तमाम
भूत-प्रेत, पिशाच मानी जाने वाली नंग-धड़ंगों की टोली- जो जताती है कि
समाज के तमाम वंचित, पिछड़े तबकों को भी मस्ती के साथ लेकर चलने वाले हैं
शिव. यह काम और कोई अवतार करता नहीं दिख पाता. शिव ऐसा कर पाते हैं तो
शायद इसलिए कि वो भारत की मौलिक आत्मा हैं, मूल जीवनशैली -
जनजातीय/ट्राईबल शैली जो जीवन को आडंबर में नहीं बल्कि संपूर्णता में
जीना सिखाती है. इस नजरिये से शिव को देखें तो उनके विराट व्यक्तित्व के
कई राज समझ पाएंगे जो अन्य प्रतीक पुरुषों में नहीं दिखते... सभी को
सृष्टि के इस सबसे उल्लासमय उत्सव की बधाई.....
Monday, February 10, 2014
नर हो न निराश करो मन को...
Sunday, February 2, 2014
कश्मीर की विरासत और आर्कियोएस्त्रोनौमी
Friday, January 24, 2014
हिमाच्छादित कश्मीर
Tuesday, January 14, 2014
मकर संक्रांति पर : लट्टू से सीख !
अपने कर गहि गगन बतावत, खेलन कों मांगै चंदा॥
बासन के जल धर्यौ, जसोदा हरि कों आनि दिखावै।
रुदन करत ढ़ूढ़ै नहिं पावत,धरनि चंद क्यों आवै॥
दूध दही पकवान मिठाई, जो कछु मांगु मेरे छौना।
भौंरा चकरी लाल पाट कौ, लेडुवा मांगु खिलौना॥
जोइ जोइ मांगु सोइ-सोइ दूंगी, बिरुझै क्यों नंद नंदा।
सूरदास, बलि जाइ जसोमति मति मांगे यह चंदा॥“