" दिन परेशां है, रात भारी है ;
जिंदगी है कि, फिर भी प्यारी है " (बोल)
पिछले दिनों पाकिस्तान से आई नसीरुद्दीन शाह अभिनीत फिल्म 'खुदा के लिए' काफी चर्चित रही थी, जिसमें 9/11 के बाद बदले हालत में इस्लाम की मनमाफिक व्याख्या पर अंकुश लगाने की झलक थी. उसके निर्देशक शोएब मंसूर की अगली पेशकश 'बोल' एक उद्देश्यपरक सिनेमा की अगली कड़ी है. सन्देश देने की अपनी जिम्मेवारियों से बौलीवुड अब खुल कर हाथ झाड चुका है, ऐसे में क्षेत्रीय सिनेमा और पडोसी देशों से आने वाली ये फिल्में सार्थक सिनेमा की एक उम्मीद तो जगाये ही रखती हैं.
बोल में पाकिस्तान के एक परिवार के माध्यम से आम आदमी के जीवनसंघर्ष और परिस्थितियों की जटिलताओं का ही निदर्शन है, मगर अपने अर्थों में यह किसी एक देश या समुदाय की नहीं बल्कि पूरे विश्व की सामाजिक असमानताओं का चित्रण करती है. स्क्रिप्ट के लिहाज से कहीं यह फिल्म कमजोर सी लगती है, मगर जिन सवालों को इसने छुने का साहस किया है, वो तथाकथित प्रगतिशील समाज में भी अश्पृश्य ही हैं.
कहानी लाहौर के एक हकीम साहब की है, जो बेटे की चाहत में 14 बच्चे पैदा करते गए, जिनमें सिर्फ़ सात ही जीवित हैं. 6 बेटियां और एक संतान जो बेटी भी नहीं हो पाया. इस आश्वस्ति के साथ कि "जब अल्लाह ने पैदा किया है तो चुग्गा भी देगा". उनकी अब भी अधूरी हसरत को देखते हुए बड़ी बेटी जेनब आवाज उठती है. वह न सिर्फ़ अपनी माँ के आगे संतान होने की संभावनाओं को समाप्त करवाती है, बल्कि अपने भाई जैसे सैफी को आत्मनिर्भर बनाने के लिए भी प्रयास करती है. मगर सैफी के साथ हुए एक हादसे से परिवार में तूफान आ जाता है, और हकीम साहब 'ऑनर कीलिंग' के नाम पर उसकी हत्या कर देते हैं. इसके बाद भी धर्म और सामाजिक मान्यताओं के नाम पर स्त्रियों की आवाज को दबाने की उनकी कोशिश जारी रहती है, और जेनब के तर्कों का उनका एकमात्र प्रतिकार हिंसा ही बचती है. परिस्थितियां उन्हें एक ऐसे मोड़ पर ले आती है, जहाँ जेनब के हाथों उसके पिता की हत्या हो जाती है, और उसे फांसी की सजा.
फिल्म में पाकिस्तानी समाज के जिन चंद पहलूओं की भी झलक मिलती है, ईमानदारी से देखें तो वो हमारे यहाँ भी विद्यमान हैं.
यहाँ मीडिया का भी एक पहलू है, जब फांसी से पहले एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करती हुई जेनब के लिए एक महिला पत्रकार बार-बार उच्चाधिकारियों से राष्ट्रपति महोदय को जगाने की गुहार करती है, ताकि वो उसकी फांसी की सजा माफ कर दें. राष्ट्रपति महोदय की नींद टूटती है मगर फांसी की सजा के बाद और उन गूंजते सवालों के बीच जो जेनब ने उठाये हैं - "अगर मारना गुनाह है तो पैदा करना गुनाह क्यों नहीं ? हराम का बच्चा पैदा करना जुर्म क्यों है, जायज बच्चा पैदा कर उसकी जिंदगी हराम करना जुर्म क्यों नहीं?? जब खिला नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हो ??? "
जरा गौर से सोचिये क्या ये सवाल सिर्फ़ पाकिस्तान के लिए ही मौजूं हैं ? क्या इनके जवाब तलाशने की जरुरत हमारे आस-पास भी नहीं ? मगर गंभीर सवालों से मुंह मोड़कर तमाशों में ही समय काटने की आदत बनाकर हम इस पूरी मानवता के भविष्य के साथ विश्वासघात ही कर रहे हैं.
मैं बार-बार कहता आ रहा हूँ कि भारत-पाकिस्तान और तमाम दुनिया के नौजवानों की सोच, जरूरतें, शिकायतें काफी एक सी हैं और इनका समाधान भी ये एक साथ मिलकर निकाल सकते हैं, बस ये सरहदों और प्रशासन की बंदिशें कम हों. यह नई पीढ़ी आजाद परिंदों की तरह है, इन्हें अपनी लकीरों में मत बांधो - घुटन होती है.....
एक वीडियो इसी मूवी से -
एक बार जरुर देख सकते हैं इस फिल्म को यदि कड़वी सच्चाई से रूबरू होने का हौसला हो तो .....
12 comments:
हर विचारवार व्यक्ति के लिए अनमोल हैं ये बोल।
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क्यों डराती है पुलिस ?
घर जाने को सूर्पनखा जी, माँग रहा हूँ भिक्षा।
Hmmm,...I think,Its a must watch movie...but aapke review ko padhkar kafi andaza ho gaya hai movie ka... aur sach kaha apne..ye sirf pakistan ki baat nahi hai,ye sampurn vishva ko aina dikhane ki jarurat hai ab
सुंदर समीक्षा के लिए धन्यबाद. सचमुच देखने योग्य फिल्म लग रही है.
बढ़िया प्रस्तुति |
बधाई ||
आपकी लेखन शैली और लेख के कथ्य हमेशा प्रभावित करते हैं। अभिभूत हुआ इसे पढ़कर।
सुंदर समीक्षा के लिए धन्यबाद|
सटीक विश्लेष्ण ...
आप सभी की सराहना का धन्यवाद. इन पोस्ट्स से मेरा प्रयास वाकई समान सोच वाले समूहों के मध्य संवाद स्थापित कराने का ही है.
samvad jaruri hai na sirf saman vichardharon ke madhy balki vipreet vichardharaon ke bhi madhya samvad jaruri hai na sirf saman vichardharon ke madhy balki vipreet vichardharaon ke bhi madhya
रोशन जी, सहमत हूँ आपसे यदि विपरीत विचारधारा संवाद का महत्व समझती हो. वैसे आजकल तो संवाद-संवाद खेलने का एक वैश्विक ट्रेंड भी चल रहा है.
तथ्यपरक समीक्षा.
अच्छी फिल्म है देखिये कब देख पाता हूँ !
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