Monday, December 29, 2008

ब्लौगिंग का सफर

ब्लौगिंग का सफर

एक और साल जाने को है, और आने को है एक नया साल। आज गुजरे वर्ष को एक बार जब पलट कर देखता हूँ तो ऐसा लगता है यह वर्ष शायद अब तक के जीवन का सबसे व्यर्थ वर्ष रहा होता। हाँ यह वर्ष भुला ही दिए जाने लायक रहता यदि इस वर्ष मैं ब्लौगिंग में न आया होता। क्योंकि उपलब्धि के नाम पर इस साल मेरे लिए मात्र ब्लौगिंग ही है।

2007 के अंत से ही ब्लौगिंग शुरू करने का प्रयास शुरू कर दिया था जो इस वर्ष स्वरुप ले सका। अपने युवा समूह 'धरोहर' (An Amateur's Club) को ब्लॉग के रूप में लाना इसे एक नया उत्साह देने के समान था।

विज्ञानं कार्यशाला के माध्यम से अरविन्द मिश्र, जाकिर अली 'रजनीश', जीशान जैदी, मनीष गोरे आदि जैसी हस्तियों से परिचय, राही मासूम रजा पर आधारित ब्लॉग और 'वांग्मय' के फिरोज़ अहमद साहब से संपर्क, धरोहर को सहेजने के मेरे प्रयास में 7 नए सहयात्रियों- केशव दयाल जी, परिमल जी, नीरज जी, विनीता यशश्वि जी, मेरी माला मेरे मोती ब्लॉग, मंसूर अली जी और अशोक कुमार पांडे जी का जुड़ना ब्लौगिंग के माध्यम से ही सम्भव हुआ। सचिन मल्होत्रा, रौशन जैसे मित्र और आशीष खंडेलवाल जैसे मार्गदर्शक भी ब्लौगिंग के माध्यम से मिले।

'भड़ास' और 'मेरे अंचल की कहावतें' ब्लॉग पर भी मुझे अभिव्यक्ति का अवसर मिला।

ब्लौगिंग में उत्साह बढ़ने वाले टिप्पणीकारों के प्रति भी मैं आभार प्रकट करता हूँ।

हाँ, नन्दलाल जी के 'जल संरक्षण अभियान' से जुड़ने और मेधा पाटेकर व संदीप पांडे से मुलाकात के लिए भी यादगार रहेगा यह वर्ष।

अब जैसी की परम्परा है आने वाले वर्ष पर ख़ुद से नए वादे करने की तो अपने कुछ शुभचिंतकों के आग्रह को स्वीकार करते हुए आप सभी ब्लौगर्स से भी वादा करता हूँ एक नया ब्लॉग 'गांधीजी' पर शुरू करने का। आशा है नव वर्ष में भी सभी ब्लौगर्स का सहयोग व प्रोत्साहन मिलता रहेगा।

सभी ब्लौगर्स को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।


Thursday, December 25, 2008

राही मासूम रजा: हिंदुस्तानियत के प्रतीक पुरूष


राही मासूम रजा : हिंदुस्तानियत के प्रतीक पुरूष

राही मासूम रजा भारत की गंगा-यमुनी संस्कृति और हिन्दी व उर्दू की स्वाभाविक एकता के प्रतीक पुरूष थे। दुर्भाग्यवश उनको आज तक मुख्यतः ' आधा गाँव 'के लेखक या दूरदर्शन धारावाहिक 'महाभारत' तथा 'नीम का पेड़' के लेखक के रूप में ही जाना जाता रहा। सौभाग्य से यदि मुझे डॉ. एम. फिरोज़ अहमद के संपादन में आई त्रैमासिक 'वांग्मय' का 'राही मासूम रजा अंक' न मिला होता तो उनके बारे में मुझे भी मात्र यह सतही जानकारी ही रहती।
जयशंकर प्रसाद ने कहा था- 'हर अमंगल के पीछे मंगल कामना होती है.' राही साहब की जिंदगी इसकी प्रत्यक्ष मिसाल है. परिस्थितियों के दबाव ने यदि उन्हें अलीगढ छोड़ने को विवश न किया होता तो शायद हम हिन्दी सिनेमा के संभवतः सबसे रचनात्मक व्यक्तित्व से रूबरू न हो पाते।
क्या आप विश्वास कर पाएंगे कि हृषिकेश मुखर्जी की कालजयी कृति 'गोलमाल' के संवाद लेखक राही साहब थे ! सुभाष घई की 'क़र्ज़' अमिताभ की 'आखरी रास्ता', यश चोपडा की 'लम्हें' और बी. आर. चोपडा की 'निकाह' आदि उनकी बहुमुखी प्रतिभा की झलक मात्र हैं।
साहित्यकार के अलावे एक भाई, पति या पिता के रूप में उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को उनकी बहन और उनकी पत्नी के साथ लिए गए साक्षात्कारों के माध्यम से जानना एक नवीन अनुभव रहा. राही साहब के लेखों और साक्षात्कारों से उनकी इस देश की मिटटी और संस्कृति से जुड़े होने की कसक भी दिखी।
राही साहब के विविधतापूर्ण व्यक्तित्व को हम तक सहजता से उपलब्ध कराने के दुसाध्य प्रयास में सफलता के लिए 'वांग्मय' की पुरी टीम बधाई की पात्र है. आशा करता हूँ की इसके संपादक फिरोज अहमद जो स्वयं भी राही साहब के क्रितित्व पर आधारित ब्लॉग (rahimasoomraza.blogspot.com) का संचालन करते हैं, को उनके इस अभिनव प्रयास में अन्य साथी ब्लौगर्स का भी सक्रिय सहयोग व समर्थन मिलेगा.




Friday, December 19, 2008

प्रगति और प्रकृति: संपूरक या विलोम

ब्रेक के बाद
ब्रेक के दौरान पिछले दिनों दिल्ली जाना हुआ. वहाँ अपनी व्यस्तता से कुछ पल निकाल जंतर-मंतर गया। जंतर-मंतर की विशेषताओं का जिक्र अगली किसी पोस्ट में, मगर यहाँ जिस विषय को उठा रहा हूँ वह 'landscape' (भू-दृश्य) के संरक्षण को लेकर है। क्या हम ताजमहल को बड़ी-बड़ी इमारतों से घिरा हुआ देखने की वीभत्स कल्पना कर सकते हैं! यदि नहीं तो अपनी विरासत के प्रति हमारी उपेक्षा का क्या कारण है ? क्या प्रगति का अर्थ प्रकृति पर चढाई करना और उसपर विजय पाना ही है ?
कभी किसी गाँव जाना हुआ, वहां सड़क के किनारे एक पेड़ थोड़ा झुक सड़क की दूसरी ओर तक आ गया था। गाँव वाले अब थोड़ा घूम कर सड़क पार करने लगे थे। उनकी परेशानी को देख मैंने पूछा -" इस पेड़ को काट क्यों नही देते!" एक ग्रामीण ने जवाब दिया- " क्यों भला! देखिये तो कितना सुंदर लग रहा है।" क्या यह सौन्दर्यदृष्टि हम तथाकथित सभ्य शहरियों के पास है ?
मैं तो अपनी व्यस्तता के बाद वापस आ गया, मगर यदि अंधाधुंध भागते इस प्रगतिशील समाज ने थोडी देर ब्रेक ले अगर इन सवालों पर न सोचा तो प्रकृति उसे ब्रेक से वापस आने की फुर्सत नहीं देगी।

Tuesday, December 2, 2008

Just a Break

थोडी व्यस्तता की वजह से ब्लोगिंग से दूर हूँ। जल्द नए और रोचक पोस्ट्स के साथ नियमित होऊंगा.
सखेद-
अभिषेक मिश्र.

Wednesday, November 26, 2008

रविन्द्र जैन : एक संगीतकार ऐसा भी


रविन्द्र जैन : एक संगीतकार ऐसा भी
अपनी विरासत पर चर्चा को समर्पित इस ब्लॉग पर आज मशहूर संगीतकार रविन्द्र जैन का जिक्र करने से ख़ुद को रोक नहीं पाया। शायद इसके पीछे हाल ही में देखी 'एक विवाह ऐसा भी' की सादगी और ताजगी से भरा जादू भी काम कर रहा हो!
दृष्टिहीन होते हुए भी इन्होने सफलता का कोई शार्टकट नहीं अपनाया। शास्त्रीय और लोक धुनों के मेल से सफलता का जो सफर राजश्री की 'सौदागर' (1973) से उन्होंने आरम्भ किया वह आज तक जारी है। टिन-कनस्तर पीट और श्मशान तक से धुनों की 'inspiration' लेने वाले संगीतकारों की भीड़ में रविन्द्र जैन मिट्टी की सोंधी सुगंध का अहसास देते हैं। मेरी नजर में तो वो सचिन दा और सलिल चौधरी की परम्परा की अगली कड़ी हैं।
हम सभी ब्लौगर्स की ओर से उन्हें लंबे और मधुर संगीतमय सफर की शुभकामनाएं।

Friday, November 21, 2008

गंगा तूँ बहती है क्यों?


गंगा तूँ बहती है क्यों?
ये दो तस्वीरें हैं हमारी आस्था की केन्द्र माँ गंगा की। बनारस जहाँ हाल ही में गंगा महोत्सव मनाने की वार्षिक औपचारिकता पुनः नए वादों और इरादों के साथ पूरी की गयीं वहीँ गंगा के मानस पुत्रों का यह व्यवहार क्या यह सोचने को विवश नही कर देता कि अब गंगा माता को इस धराधाम और सुख-दुःख के चक्र से मोक्ष मिल ही जाना चाहिए। गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करवा आत्ममुग्ध हो रहे गंगापुत्रों के लिए क्या यह राष्ट्रीय शर्म का विषय नहीं कि अपनी माँ को स्वच्छ और सुरक्षित रखने के लिए उन्हें सरकारी तंत्र की याचना करनी पड़ रही है! इन्सान कि तरह नदियों का भी जीवनचक्र होता है और एक-न-एक दिन गंगा को भी जाना ही है, मगर आज कि परिस्थितियां गंगा को अकालमृत्यु या आत्महत्या के लिए विवश कर दें तो अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए गंगा को धरती पर लाने वाले भगीरथ कि आत्मा अपने वंशजों को माफ़ नहीं करेगी।

Monday, November 17, 2008

बाल-दिवस और बाल गीत


(Image from google)

बाल-दिवस और बाल गीत
बाल दिवस आया और एक बार फ़िर कई वादों और इरादों के आश्वाशन के साथ चला गया। कई बच्चों ने इसे फैशन परेड और बड़ों के गानों पर छोटे -छोटे ठुमकों के साथ मनाया और कईयों को इस बार भी पता नहीं चला की उनके लिए भी इस देश में कोई दिन निर्धारित है। मगर मैं मुख्यतः बात कर रहा हूँ उन बच्चों की जिन्हें इस देश का कर्णधार मानते हुए आज के प्रतिस्पर्धी समाज के अनुकूल ढालने के प्रयास किए जा रहे है। इस प्रयास की एक झलक तो तथाकथित reality shows में दिख ही रही है जहाँ इनका मासूम बचपन इनसे किस तरह छीना जा रहा है!
इस पीढी को शायद ही याद होंगे वो ख़ूबसूरत बाल लोक गीत जो इस देश की मिट्टी की खुशबु में भीगे होते थे और अनजाने में ही उन्हें अपने परिवेश और प्रकृति से मजबूती से बाँध लेते थे। ऐसा ही एक बाल खेल गीत है-

ओका-बोका तीन तरोका,लउआ लाठी चंदन काठी,चनवा के नाम का ?, 'रघुआ',खाले का? 'दूधभात',सुतेले कहाँ? 'पकवा इनार में',ओढ़ेले का?, 'सूप' देख 'बिलायी के रूप'।

गर्मी की दुपहरी में बच्चे इस खेल में अपने 4-5 दोस्तों के साथ अपने पंजों को केकड़े के रूप में रखते थे और कोई लड़का यह गीत गाते हुए इन पंजों की गिनती करता। इस क्रम में जिसके पंजे पर 'सूप' शब्द आता उसे सभी 'बिलाई' कह चिढाते।
खाने को मनाने के लिए माँ की ममता चाँद का भी सहारा लेती -
चंदा मामा,
आरे आव- पारे आव, नदिया किनारे आव,
दूध-रोटी लेके आव,बेटवा के मुंहवा में गुटुक।
और चंदा मामा को निहारते हुए माँ के हाथों से भोजन का सुख लेता बालक कब उनसे अपना एक रिश्ता बना लेता उसे पता ही नहीं चलता।
वही रिश्ते उसे हमेशा अपनी मिटटी और संस्कृति से जोड़े रहते। आज जब बच्चों को मिट्टी को गन्दा कह हाथ धोने का पाठ पढाना सभ्यता समझी जा रही है तो उसके अपनी मिट्टी से कटने की शिकायत भी अभिभावकों को नहीं होनी चाहिए।
(यदि आपकी यादों में भी बचपन में सुने ऐसे कोई गीत बसे हों तो कृप्या मुझसे भी साझा करें। )

Monday, November 10, 2008

नरसिंह स्थान

नरसिंह स्थान मन्दिर, हजारीबाग.






झारखण्ड के हजारीबाग जिले में स्थित धार्मिक स्थल 'नरसिंह स्थान ' में आयोजित होने वाला यह एक वार्षिक उत्सव है। यह प्रति वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के दिन आयोजित होता है। मान्यता है की लगभग 4०० वर्ष पूर्व स्व० श्री दामोदर मिश्र ने यहाँ नरसिंह भगवान की प्रतिमा स्थपित की थी। प्रारम्भ में कार्तिक पूर्णिमा के उपलक्ष्य में स्थानीय कृषक वर्ग नई फसल के रूप में ईख तथा नए धान को भगवान को अर्पित किया करते थे। इस परम्परा ने आज एक विशाल मेले का रूप ले लिया है और आरंभिक छोटा सा मन्दिर परिसर आज एक भव्य तीर्थ स्थल के रूप में स्थापित हो चुका है। यहाँ दशावतार मन्दिर, सूर्य मन्दिर और माँ सिद्धिदात्री देवी के मन्दिर सहित कई अन्य प्रमुख मन्दिर भी हैं जिन पर भक्तों की श्रद्धा कायम है.
तो आइये इस बार आप भी कार्तिक पूर्णिमा (१३ नवम्बर) को हजारीबाग, शामिल होने इस प्राचीन और पारंपरिक मेले में।

Wednesday, October 29, 2008

दीपावली vs सोहराई

अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है दीपावली। इसके प्रारंभ की जड़ें अतीत से भी परे हिन्दुस्तानी जनमानस की आस्था की परतों में है। मगर यह भी वास्तविकता है की यह पर्व अलग-अलग नामों के साथ लगभग पुरे विश्व में प्रचलित है. तो क्या हमें इस पर्व की मूल तक पहुँचने के बारे में नही सोचना चाहिए!
भारत में जैसा की हर पर्व के पीछे हर संप्रदाय की अपनी एक अलग ही मान्यता है, जो इसकी विविधता के कारण स्वाभाविक भी है। मगर जहाँ तक मैं समझता हूँ दिवाली की जड़ें 'आर्यों' के आगमन के पूर्व उस समाज तक भी जाती हैं जब 'मात्रिसत्तात्मक' व्यवस्था प्रचलित थी और प्रकृति की भी उपासना होती थी।
भारत में अधिकांश बातें प्रतीकों में छुपी हुई हैं। हमारे गांवो और आदिम समाज जो पूजा की आधुनिक और कानफोडू शोर वाली प्रथा से अछुता है आज भी दीपावली में जिन प्रमुख प्रतीकों का प्रयोग करता है वो हैं- 'दिया', 'मछली' और 'घडा' जो की fertility या 'प्रजनन शक्ति' के प्रतीक हैं. आदिम कृषक समाज धरती को माँ के रूप में देख उसकी उर्वरा शक्ति की ही पूजा करता था. भारत के सांस्कृतिक एकीकरण के अभूतपूर्व प्रयास में 'राम' के मध्यम से इस त्यौहार को भी हिंदू संस्कृति में आत्मसात कर लिया गया. आज भी ग्रामीण भारत में दीपावली मनाने की प्रक्रिया 'पारंपरिक' है 'सांस्कृतिक' नहीं. उदाहरण के लिए बिहार, झारखण्ड के गांवो में 'घरोंदा' बनाना, यम का दिया जलाना, या 'सोहराई' मनाया जाना जिसमें दिवाली के अगले दिन घर की दीवारों को प्राकृतिक रंगों से रंग जाता है और एक 'रेखा' द्वारा घर को घेर दिया जाता है जिसे 'बंधना' भी कहते हैं. मान्यता है की इससे 'अकाल मृत्यु' नहीं होती.
इन सारी परम्पराओं की विधि किसी धार्मिक पुस्तक में नही मिलेगी मगर इनकी जनस्विकार्यता इनके प्रचलन के मूल तत्वों पर पुनर्दृष्टि डालते हुए भारत की विविधता को एक नए परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत पर बल देती है, जोकि हमारी साझी धरोहर भी है.

Friday, October 17, 2008

श्रीराम राज्याभिषेक


आँखों देखे अनुभव, समाचार पत्रों और इन्टरनेट से जुटाई तस्वीरों के माध्यम से बनारस की रामलीला से सम्बंधित लेख का अन्तिम भाग प्रस्तुत कर रहा हूँ, आशा है पोस्ट पसंद आएगी.


श्रीराम राज्याभिषेक
अयोध्या के सिंहासन पर बैठे श्रीराम
ऐसा लग रहा था जैसे श्रीराम राज्याभिषेक का दृश्य देखने के लिए अयोध्यावासी ही नहीं अपितु संपूर्ण देवलोक भी व्याकुल हों। श्री राम व सीता को राज सिंहासन पर विराजमान होते देखने के लिए गुरु वशिष्ठ के साथ लंका के राजा विभीषण, सुग्रीव, अंगद, जामवंत, निषादराज व हनुमान सहित समस्त जनसमुदाय आतुर हैं। गुरु वशिष्ठ की आज्ञा पाकर श्रीराम ने दरबार में उपस्थित सभी का सिर नवाकर अभिवादन किया। श्रीराम की जय के घोष के बीच प्रभु के राजसिंहासन पर आरुढ़ होते ही रामनगर में चल रही रामलीला के 29 वें दिन रविवार को श्रीराम राज्याभिषेक की लीला संपन्न हुई।

लीला स्थल पर जाते श्री राम-लखन
काशीराज की परंपरा का निर्वहन करते महाराज कुंवर अनंतनारायण सिंह सायंकाल राजपरिवार के सदस्यों, दरबारियों, सभासदों के साथ रामनगर दुर्ग से पैदल चलकर अयोध्या लिलास्थल पहुँच चुके थे। राजा बने श्रीराम के सम्मान में कुंवर सहित सभी लोग जमीन पर बिछाए गए आसन पर बैठे। कुंवर ने श्रीराम को भेंट देकर राजतिलक किया। श्रीराम बने स्वरूप ने अपने गले का पुष्पहार कुंवर के गले में डाल दिया और हर-हर महादेव के उद्घोष से लीलास्थल गूंज उठा। समस्त देवता, चारों वेद और भगवान शिव भी समारोह में शामिल हुए। भगवान शिव के कैलाश प्रस्थान के बाद सभी वीर योद्धाओं को उपहार दे विदा किया गया। भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न वानर वीरों को विदाई देने दूर तक गए। सुग्रीव ने हनुमान की इच्छा को देखते हुए सर्वदा श्रीराम सेवा के लिए उन्हें मुक्त कर दिया।

अयोध्या के राजसिंहासन पर राम-सीता विराजमान हैं, भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न खड़े हैं तथा हनुमान को चरणों में नतमस्तक देख दर्शक भावविभोर हो उठे हैं।

Wednesday, October 8, 2008

बनारस की रामलीला
वाराणसी- भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक राजधानी. भोलेनाथ की इस नगरी की हर बात अनूठी है और अनूठी है यहाँ की रामलीला भी. विजयादशमी के अवसर पर यूँ तो पुरा शहर ही रामलीला का मंच बन जाता है, मगर रामनगर की रामलीला की बात ही कुछ और है. आम लोगों के दिलों में रस-बसे काशी नरेश के सान्निध्य में आयोजित होने वाली यह रामलीला 1, 2 या 10 नहीं बल्कि पुरे एक महीने तक चलती है।
अनंत चतुर्दशी से आरम्भ होने वाली इस लीला में मुख्य किरदार बाल कलाकार ही निभाते हैं। अभ्यास आरम्भ होने से लेकर लीला समाप्ति तक सारे कलाकार पूर्ण अनुशासन और वैष्णव विधियों का पालन करते हैं. पारंपरिक स्वरुप को बरक़रार रखते हुए लीला के मंचन के दौरान आधुनिक संचार उपकरणों (माइक, स्पीकर आदि) तथा बिजली के बल्बों का प्रयोग नही किया जाता. दर्शकों में उपस्थित अनगिनत संत जो 'रामायणी' कहलाते हैं तथा अन्य भक्त भी अपने साथ 'रामचरितमानस' की प्रति साथ रखते हैं, और पात्रों की भंगिमा का अनुमान लगा उनके साथ संवाद दोहराते हैं.
श्रद्धा और पारम्परिकता का अद्भुत मेल और हमारी साझी धरोहर है यह 'रामलीला'. आइये आप भी इस विजयादशमी को शिव की नगरी में राम के स्वरुप के दर्शन करने.

Wednesday, October 1, 2008

युवा सत्याग्रही - मोहनदास करमचंद गाँधी


युवा सत्याग्रही

2 अक्टूबर- महात्मा गाँधी का जन्मदिन। सारे हिंदुस्तान के लिए यह गर्व की बात है की गांधीजी के जन्मदिन को स. रा. संघ द्वारा अन्तराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया है। मगर गाँधी जी की जो छवि हमारे दिलो-दिमाग में बसा दी गई है, वह है एक 80 साल के बुजुर्ग की जो हाथ में लाठी लिए तेज क़दमों से चल रहा है। उनकी यह छवि चाहे जितनी सम्माननीय लगे मगर न तो गांधीजी के व्यक्तित्व के साथ पूर्णतः न्याय कर पाती है और न ही ज्यादातर युवाओं को अपनी ओर आकर्षित .मगर गांधीजी की एक और भी छवि है, जो जाने-अनजाने भुला दी गई है- युवा सत्याग्रही की।

आज याद करें उस युवा बैरिस्टर गाँधी को जिसने उपनिवेशवाद के विरुद्ध विदेशी धरती पर हल्ला बोला था। अपने अपमान पर तिलमिलाया था और व्यक्तिगत आक्रोश को एक पुरे राष्ट्र के विरोध की गूंज बना दिया था। और इस साध्य के लिए उसने कभी भी अपने साधनों से समझौता नही किया.

आइये श्रद्धान्जली दें उस जुझारू व्यक्तित्व को जिसके विचार आज भी संपूर्ण विश्व को अशांति के बीच शान्ति का मार्ग दिखाते हैं।


Saturday, September 27, 2008

गूगल

वर्तमान की धरोहर- 'Google'

आपने ध्यान दिया की हमारा पसंदीदा सर्च इंजन अपनी स्थापना की 10 वीं सालगिरह मना रहा है!

आइये एक संछिप्त नजर डालते हैं इसके सफर पर.
Google की शुरुआत 1996 में Larry Page, जो एक शोध छात्र थे, के रिसर्च प्रोजेक्ट के रूप में हुई। शिक्षक Terry Winograd के प्रत्साहन और घनिष्ठ मित्र Sergey Brin के साथ मिल उन्होंने अपने इस कार्य को विस्तार दिया, और डोमेन google।con का रजिस्ट्रेशन 15/09/1997 कराया गया। 7/09/1998 को मेन्लो पार्क, कैलोफोर्निया में इनकी कंपनी 'Google Ink' अस्तित्व में आई।
यहां यह उल्लेख करना रोचक होगा की google मूलतः 'googol' की अशुद्ध वर्तनी है, जिसका अर्थ होता है एक ऐसी संख्या जिसमे 1 के आगे 100 शून्य लगे हों। आज यह दुनिया का सबसे बड़ा सर्च इंजन है, और इसकी उपयोगिता किसी संख्या की मुहताज नहीं। हमारे लिए यह कितना महत्वपूर्ण है यह बताने की तो जरूरत ही नहीं। तो क्यों न हम भी कहें- 'हैप्पी बर्थडे टु google'।

Saturday, September 13, 2008

बोलते पत्थर

Abhishek Mishra at Equinox Site

A beautiful view of Equinox
धरोहर की पृष्ठभूमि झारखण्ड से जुड़ी होने के कारण स्वाभाविक है की इसमे झारखण्ड की विरासत की भी चर्चा हो। आज चर्चा एक ऐसे स्थल की जो झारखण्ड में एक समृद्ध प्राकैतिहाषिक सभ्यता के अस्तित्व की पुष्टि करता है।
झारखण्ड की राजधानी रांची से लगभग 90 km की दुरी पर हजारीबाग जिला स्थित है, जो अपनी प्राकृतिक सुन्दरता की वजह से काफी चर्चित रहा है। यहीं से 25 km की दुरी पर बडकागांव प्रखंड में स्थित है - पंखुरी बरवाडीह गांव। यहाँ बड़े-बड़े पत्थरों से बनी वो संरचना संभवतः तब से खड़ी है जब मानव गुफाओं से बाहर निकल अपनी धरती के रहस्यों को समझने का प्रयास आरंभ कर रहा था. इंग्लैंड के स्टोन हेंज (Stone Henge) जो Solstice के अध्ययन के लिए निर्मित किए गए थे उन्ही के सदृश्य यह megalithic स्थल संभवतः Equinox के अवलोकन के लिए प्रयुक्त होता था. आज भी यहाँ २१ मार्च व २३ सितम्बर को २ विशाल पत्थरों के बीच बनी 'V' आकृति से सूर्य को उगते देखा जा सकता है. जाहिर है की इस पॉइंट से सूर्य की उत्तरायण व दक्षिणायन गति भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है.
Equinox को देखने की लगभग लुप्त हो चुकी परम्परा को पुनः स्थापित करने वाले अन्वेषक श्री शुभाशीष दास मानते हैं की यह स्थल कई और खगोलीय रहस्यों को उजागर कर सकता है. यह संभवतः भारत का एकमात्र स्थल है जहाँ आम लोग सिर्फ़ Equinox के अवलोकन के लिए जुटते हैं.
तो आइये इस माह २३ सितम्बर को आप भी Equinox का उत्सव मनाने पंखुरी बरवाडीह(महाविषुव स्थल)।

Thursday, September 11, 2008

भूमिका



" जब तलवार मुकाबिल हो तो ब्लॉग शुरू करो ", शायद ये पंक्तियाँ आज ज्यादा सटीक होंगीं. सम्पूर्ण विश्व का इतिहास इस बात का साक्षी है की कलम ने हर युग, हर परिस्थिति में अपना सशक्त प्रतिरोध दर्ज किया है और कलम की इसी ताकत पर विश्वास का प्रतीक है यह प्रयास. 'धरोहर' (An Amateur's Club), जो संभवतः अपनी तरह का एक अकेला Group है, अभिव्यक्ति है उस युवा सोच की जो अपनी आंखों के सामने अपनी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत को विभिन्न दबावों में ध्वस्त होते देख रहा है. यह एक मंच है सभी युवाओं के अपनी संस्कृति को जानने, समझने तथा उसकी साझेदारी का. यहाँ युवा का तात्पर्य सिर्फ़ बाह्य नही बल्कि आंतरिक रूप से युवा होने से है. अतः आशा है इस प्रयास को अन्य युवाओं का भी सक्रिय सहयोग मिलेगा.

Wednesday, September 3, 2008

Welcome


Welcome to the world of your own Dharohar.Come, Join & share your thoughts, ideas & informations about our rich heritage.Either it is archaeological, historical, cultural, literatures or folk tales/songs.

On the inogration of this blog I'd like to share about the annual event "Patangotsava",organised by our young group-'Dharohar'( An Amateure's Club).To revive the dying tradition of kite flying we started this event annually.Perhaps it is the only one group in Jharkhand which organise this kind of event without any external & government help ,based on its own limited resources.People of the Hazaribag district(Jharkhand)admiring & supporting our attempt,which is our source of inspiration.
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