Friday, December 25, 2009
aakanksha और shubhkaamnayein.
Monday, November 9, 2009
सूर्योदय के प्रदेश का सूर्योदय
जब तक यह पोस्ट आपके सामने होगी मैं पुनः फिल्ड में होऊंगा. साइबर कैफे पर निर्भरता ने पिछले फिल्ड वर्क की तस्वीरें तो आपतक पहुँचाने में बाधा जरुर डालीं, मगर वापस लौट इस कमी को पूरा करने का प्रयास जरुर करूँगा.
इस पोस्ट के साथ हैं मेरी फोटोग्राफी जीवन की कुछ अत्यंत कठिन तस्वीरों में से एक- 'अरुणाचल का सूर्योदय'. सूर्योदय के प्रदेश में इस दृश्य को कैमरे में कैद करना कितना मुश्किल है यह मैं ही जानता हूँ. यहाँ आने के एक महीने बाद सूर्य को पकड़ सका और ये छवियाँ कैद कर आप तक पहुंचा रहा हूँ. अगली मुलाकात तक नए सूर्योदय और नई शुरुआत की कामना के साथ-
Friday, November 6, 2009
ब्लॉग जगत के 2 स्तंभ
अपनी पिछली एक पोस्ट में मैंने अपने संपर्क में आये कुछ ब्लौगर्स की चर्चा की थी, यह चर्चा अधूरी है यदि इनमें दो और नामों को शामिल न कर लूँ. ये दो सज्जन हैं - हिंदी ब्लॉग टिप्स के आशीष खंडेलवाल जी और हिन्दयुग्म के शैलेश भारतवासी।
शैलेश जी से मेरी मुलाकात 'रांची ब्लौगर्स मीट' में हुई थी। हिंदी ब्लौगिंग को लोकप्रिय बनाने में इनका भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। इस संबंध में किसी भी सहयोग के लिए वो सदा तत्पर रहते हैं. अपनी घुमक्कड़ नियती और साइबर कैफे आदि पर निर्भरता से मैं उनका ज्यादा लाभ नहीं उठा सका हूँ मगर वजह - बेवजह उन्हें परेशान करने का मौका हाथ से जाने नहीं देता.
Monday, November 2, 2009
आज इन नजारों को तुम देखो...
(अरुणाचल का अनदेखा - अनछुआ सौंदर्य पहली बार सिर्फ आपके लिए)
जाते थे जापान, पहुँच गए चीन- मेरे लिए इस कहावत का भावात्मक ही नहीं, शब्दात्मक संबंध भी है. कैसे! यह कभी और बताऊंगा. फिलहाल तो यही की अकादमिक जगत में कैरियर की संभावनाएं तलाशता अब कन्ष्ट्रक्शन के क्षेत्र में आ गया हूँ; और इस सुदूर अरुणाचल में 'आने वाले कल की बुनियाद' रख रहा हूँ. हाल के फिल्ड वर्क के अनुभवों की चर्चा अगली पोस्ट्स में करूँगा.
इस बार आप तक पहुंचा रहा हूँ इस सुदूरवर्ती क्षेत्र के अछूते और अप्रतिम सौंदर्य को झलकाती चंद तस्वीरें :
1. हुस्न पहाडों का
2. इजाजत हो तो इसे 'मन्दाकिनी फाल नाम दे दूँ ?
3. झर-झर झरते पड़ी झरने
4. नवयौवना नदी की अल्हड़ मस्ती
Saturday, October 31, 2009
Arunachal mein Chath
Monday, October 19, 2009
गंगा से ब्रह्मपुत्र तक
यहाँ मेरा अगला लक्ष्य था पुनः ब्लॉग जगत से जोड़ने वाली मेरी जीवनधारा साइबर कैफे की खोज, जो एकमात्र कैफे के रूप में पूरी तो हुई मगर 50 रु। / घं की कीमत पर. किन्तु इस आभासी जगत से वास्तविक रूप से जुड़े रहने की संतुष्टि का मूल्य इससे कहीं अधिक था.
आगामी पोस्ट्स में अरुणाचल ओर अपने फिल्ड वर्क से जुड़ी और भी बातें बांटने का प्रयास करूँगा।
इस पोस्ट के साथ संलग्न है - विक्टोरिया मेमोरियल के पास इतराती मेरी, जीवनधारा ब्रह्मपुत्र पर निर्भर जनजीवन की और अरुणाचल में मेरे नए आशियाने की झलक।
Thursday, October 15, 2009
जाना न दिल से दूर ...
एक लम्बे मगर स्थानीय व्यवधान की वजह से अधूरे फिल्ड वर्क, साइबर कैफे संचालक की चुनावी व्यस्तता (यहाँ चुनावों में काफी सहभागिता रहती है आम लोगों की) आदि की वजह से एक लम्बे अंतराल के बाद आपसे मुखातिब हो पाया हूँ।
Monday, September 14, 2009
ब्लौगर्स देख लो मिट गईं दूरियां ...
(हिंदी दिवस विशेष)
मैं यहाँ-हूँ यहाँ...जी हाँ अरुणाचल से ब्लौगिंग में वापस. और दूरियां वाकई कम हो गई हैं न सिर्फ मेरे और ब्लौगिंग के बीच, बल्कि हिंदी के ह्रदय प्रदेश से संबद्ध मैं और इस सुदूर उत्तर-पूर्व क्षेत्र के बीच भी. लगभग 1 सप्ताह से गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों में ही हूँ, मगर भाषा को लेकर कोई विशेष समस्या नहीं पाई है. अपनी लचीली शैली में हिंदी यहाँ भी पूरी शान से विद्यमान है. गोहाटी से काफी दूरी तक तो 'विविध भारती' का भी साथ रहा, अलबत्ता यहाँ इससे संपर्क कायम नहीं हो सका है.
ऐसे में क्या यह स्वीकार करने के लिए किसी औपचारिक दिवस की प्रासंगिकता का कोई औचित्य है कि -
"हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तां हमारा..."
हाँ इतना जरुर कहूँगा कि व्यक्तिगत स्तर पर मैंने पाया है कि बहुतया हिंदी भाषी क्षेत्र अपने - आप में ही एक आत्ममुग्धता में रहते हैं, और अन्य भाषा तथा भाषियों के प्रति सामान्यतः एक उपहास तथा उपेक्षा सा भाव रखते हैं. अक्सर यही प्रवृत्ति विवादों का आधार बनती है और संकीर्ण राजनीति के बाजीगर इसका लाभ उठाकर 'राज' करते हैं.
तो आइये क्यों न हम भी प्रयास करें हिंदी के अलावे कम-से-कम एक क्षेत्रीय भाषा की कम-चलाऊ जानकारी का ही सही. यही प्रयास तो मूल होगा भारत की वास्तविक एकता का. क्योंकि यदि हम देशवासी एक-दुसरे की बोली ही नहीं समझेंगे तो गलतफहमियां और मनभेद तो होंगे ही.
यहाँ के अपने अनुभव आगे भी बांटूंगा और विश्वास करता हूँ कि वे सभी अपने - आप में एक 'धरोहर' ही होंगे.
साथ ही आप सभी ब्लौगर्स से एक रियायत देने का अनुरोध भी करूँगा. वो यह कि इन्टरनेट की सुविधा और उसकी परिस्थितियों के अनुरूप संभव है आगामी पोस्ट्स में कभी रोमन हिंदी का प्रयोग भी करना पड़े. हिंदी की अभिव्यक्ति के लचीलेपन की इस सुविधा का लाभ उठाते हुए यथासंभव आपतक इस सुदूर प्रान्त के अनुभव पहुँचाने का प्रयास करता रहूँगा.
शुभकामनाएं.
Wednesday, September 9, 2009
ये मेरा दिवानापन है, या...
अब इसे ब्लॉग्गिंग का जुनून कह लीजिये, या मन का फितूर. सुबह से ट्रेन का इन्तेजार करता, अब जब ट्रेन के 4 घंटे लेट होने की सूचना पाई तो आस-पास कैफे ढूंढने से खुद को रोक नहीं पाया। इसी बीच देव साहब की फिल्मों की कुछ क्लासिक collection भी मिल गई है, जो आशा है अरुणाचल में काफी साथ देंगीं. तसल्ली की बात यह है की वहां इन्टरनेट की uplabdhata की सूचना मिली है, albatta यह बात digar है की इसका rate 50 ru . / घंटे है. अब वहां पहुँच कर आगे की daastan bayan करने की कोशिश karunga . तब तक के लिए enjoy blouging।
(tatkalik internet suvidha के sucharu रूप से काम न कर pane के लिए हुई asuvidha के लिए खेद है। )
Wednesday, September 2, 2009
ये रातें, ये मौसम....और बस डकैती
Saturday, August 29, 2009
ये है ब्लौगिंग मेरी जाँ...
Thursday, August 27, 2009
ब्लौगिंग फेयरवेळ
Monday, August 24, 2009
अलविदा बनारस, अल्पविराम ब्लौगिंग
Saturday, August 22, 2009
दिल आज शायर है...
एक - एक कर साथ सारे छुटते गए,
Wednesday, August 19, 2009
ब्लौगिंग से मौडलिंग की ओर !
साईट की खूबियों और खामियों पर काफी चर्चा की गुंजाईश तो है ही, मगर यह एक अच्छा-खासा मनोरंजन और चंद पलों के लिए ही सही मोडल्स सा अहसास तो देता ही है. तो क्यों न एक बार आप भी आजमा कर देखें फोतोफुनिया को.
Monday, August 3, 2009
धार्मिक स्वतंत्रता का दुरुपयोग !
धार्मिक स्थलों के नाम पर भूमि के अवैध अतिक्रमण के प्रयासों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका सराहनीय है। कोई भी धर्म या संप्रदाय धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर नाजायज लाभ उठाने के लोभ के संवरण से आज पीछे नहीं है। व्यक्तिगतरूप से मैं भी यह महसूस करता हूँ कि अनाधिकृत रूप से निजी हितों की पूर्ति के लिए पूजन स्थलों के नाम पर अर्जित की गई भूमि पर ईश्वर निवास कर ही नहीं सकते। कोई भी शिवलिंग या धार्मिक चिह्न स्थापित कर अच्छी-खासी भूमि का अधिग्रहण हम सभी ने देखा है, हद तो तब हो जाती है जबकि अपने निवासस्थानों जिनकी बाउंड्री अमूमन अतिक्रमित ही होती है को बचाने के लिए बाहरी कोने में एक छोटा मंदिर या आराधनालय स्थापित कर दिया जाता है। इसी भगवान की व्यक्तिगत उपासना ही उन्हें नगरनिगम के अतिक्रमण विरोधी अभियान से बचाने में ढाल का काम देती है। इस पापकर्म में जबरन भागी बनवाये जाते प्रभु के ह्रदय पर क्या गुजरती होगी, भला सोचा है उनके भक्तों ने।
कई बार काफी सावधानीपूर्वक चलाये जा रहे अभियानों में भी एक छोटी सी असावधानी जैसे 'प्रभु की एक ऊँगली का टूटना' जैसी घटनाओं ने बड़े दंगों का रूप भी ले लिया है। ऐसी घटनाओं का लाभ उठाने में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं रहे हैं।
जरुरत है कि सभी धर्मों के प्रतिनिधि और राजनीतिक दल व्यक्तिगत हितसाधन के इस शर्मनाक प्रयास के विरोध में एकजुट हों। अतिक्रमित धर्मस्थलों को उपासना के लिए अयोग्य घोषित किया जाये और भूमि को अतिक्रमण से मुक्त कर उसका उपयुक्त उपयोग सुनिश्चित किया जाये। साथ ही साथ धार्मिक आयोजनों के नाम पर सावर्जनिक स्थलों के असंतुलित अतिक्रमण के विरुद्ध भी जनमानस बनाये जाने की जरुरत है।
Wednesday, July 29, 2009
तस्वीरों के आईने में पूर्ण सूर्यग्रहण
सूर्यग्रहण देखने की पृष्ठभूमि तैयार करते प्रियेषा और कौस्तुभ
लो शुरू हो गया ग्रहण, और इसे निहारते अरविन्द मिश्र
सभी ने संभाल ली है अपनी-अपनी कमान: कहीं छुट न जाये एक भी क्षण
और ये लग गया पूर्ण सूर्यग्रहण !
वाराणसी के घाटों पर उतर आया अन्धकार
इस अद्भुत खगोलीय दृश्य से अभिभूत हमारी टीम :
Wednesday, July 22, 2009
यूँ देखा मैंने पूर्ण सूर्यग्रहण
Thursday, July 16, 2009
बोल- बम का नारा है...
Wednesday, July 1, 2009
झाड़खंड के आदिवासी लोकगीत
ऐ बेटी- जब तक तुम्हारी माँ है,
ऐ बेटी- जब तुम्हारी माँ मर जायेगी,
Wednesday, June 24, 2009
झाड़खंड की ऐतिहासिक जगन्नाथ रथयात्रा
Monday, June 8, 2009
हबीब तनवीर के प्रति ...
Wednesday, June 3, 2009
झाड़खंड का लाल
Sunday, May 24, 2009
ये दिल्ली है मेरे यार
घुमने और जानकारियों का संग्रह करने के इच्छुक मेरे जैसे लोगों के लिए दिल्ली एक आदर्श जगह है। जिसने हिंदुस्तान को बार-बार बनते-बिगड़ते, बिखरते - उभरते देखा हो, वहां का चप्पा- चप्पा इतिहास के एक अध्याय का किस्सा सुना रहा होता है।
Sunday, May 17, 2009
इंडिया राइजिंग - जय हो
तस्वीर- साभार गूगल
Wednesday, May 13, 2009
घाघ-भड्डरी की खोज में
Wednesday, May 6, 2009
मीटिंग @ दि मेट्रो
नीरज जी के बारे में इतना बता दूँ कि ये भी एक सेलेब्रिटी ब्लौगर हैं, और रविश जी की ब्लॉग चर्चा से इनकी एक अलग ही कहानी जुडी हुई है. आजकल अपनी पहेलियों से हम ब्लौगर्स के सामान्य ज्ञान का जायजा लेने में भी जुड़े हुए हैं ये.
उनकी मेहमाननवाजी का लुत्फ़ उठाते हुए हमने मेट्रो म्यूज़ियम का भ्रमण किया. मुसाफिर भाई तो मुसाफिर ही थे. अपनी शिमला यात्रा का रूट डाईवर्ट कर उन्हें इस ओर का रुख करना पड़ा था. इसलिए हमने जल्द ही एक-दुसरे से विदा ली. मुलाकात छोटी ही रही किन्तु इसने साथ-साथ हरिद्वार न जा पाने की पुरानी कसक को थोडा कम तो किया ही. आशा है जल्द ही नीरज जी की शिमला यात्रा का विवरण उनके ब्लॉग पर मिलेगा.
Saturday, April 18, 2009
विश्व विरासत दिवस पर कुछ सवाल ?
ऐसी ही घटनाओं की कड़ी में अब हजारीबाग के पाषाण वृत्त (Stone Circle) भी आ गए हैं. जिस प्राकैतिहसिक धरोहर के साथ इस क्षेत्र को अन्तराष्ट्रीय पर्यटन मानचित्र में देखने की कल्पना की जा रही थी, उसकी दुर्दशा दिल को तोड़ देने वाली है. अन्वेषक श्री शुभाषिस दास के एकल प्रयासों से यह स्थल 'समदिवारात्रि' (Equinox) देखने के विश्व में एकमात्र प्राकैतिहसिक स्थल के रूप में विकसित हो रहा था. विरासत की सुरक्षा से जुड़े उच्चतम संस्थानों के अलावा प्रशासन भी इस स्थल की महत्ता से वाकिफ था, मगर इस स्थल की सुरक्षा को तमाम आग्रह के बावजूद नजरअंदाज किया गया. परिणाम ? आज यह स्मारक भी किसी की प्यार की निशानी के घाव अपने सीने पर झेलने को विवश है.
प्रशासन से भी कहीं ज्यादा ऐसे मामलों में स्थानीय जनता दोषी है जो अपनी विरासत के प्रति उपेक्षा का भाव रखती है. हो सकता है रोटी-रोजगार का दबाव इस विषय को हमारी प्राथमिकता सूची में नहीं आने देता, मगर खास ऐसे उद्देश्यों के लिए निर्मित सरकारी विभाग भला किस काम के हैं? 'विश्व विरासत दिवस' पर रूटीन जुमलों और औपचारिकताओं के अलावे अपने आस-पास बिखरी अमूल्य धरोहर को सहेजने की दिशा में सार्थक पहल ही हमें अपनी विरासत पर गर्व करने के अवसर उपलब्ध करा सकेगी.
Thursday, April 9, 2009
झाड़खंड की अनूठी रामनवमी
सारे देश में जब रामनवमी का उल्लास ढलान पर होता है, हजारीबाग में यह आयोजन जोर पकड़ रहा होता है. चैत माह के शुक्ल पक्ष की दशमी से आरम्भ झांकियों का क्रम त्रयोदशी की शाम तक जारी रहता है. इसमें आस-पास के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों से भी सैकड़ों झांकियां शामिल होती हैं जिन्हें देखने के लिए अपार जनसमूह उमड़ पड़ता है. महिलायें और बच्चे अपनी सुविधानुसार जुलूस मार्ग के मकानों की छतों पर कब्जा जमा लेते हुए इस आयोजन की छाप अपने दिलों में बसा लेते हैं.
इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा मुस्तैदी दिखानी होती है प्रशासन को. पारंपरिक मार्ग से जुलूस का शांतिपूर्वक गुजर जाना ही प्रशासन की प्राथमिकता होती है.
प्रारंभ में तो यह आयोजन महावीरी झंडों और पारंपरिक अस्त्र-शस्त्र के प्रदर्शन और परिचालन के रूप में एक प्रकार का शक्ति पर्व ही था, मगर युवा पीढी पर हावी होती आधुनिकता और आडम्बरों से अब यह पर्व भी अछूता नहीं रहा है. फिर भी रामनवमी के इस स्वरुप का अवलोकन अपने-आप-में एक अलग अनुभव है, जिसके साक्षात्कार का अवसर पाने का प्रयास जरुर किया जाना चाहिए.
Friday, April 3, 2009
एक रात- काशी के महामूर्खों के साथ
विद्वानों की नगरी मानी जाने वाली उत्सवप्रिय काशी में एक शाम महामूर्खों के नाम करने की भी परंपरा है. पहली अप्रैल को गंगा तट पर सालाना आयोजित होने वाले 'महामूर्ख सम्मलेन' ने एक पारंपरिक आयोजन का रूप ले लिया है.
1980 में स्व. चकाचक बनारसी और पं. श्री धर्मशील चतुर्वेदी के सम्मिलित प्रयासों से महामूर्ख सम्मलेन का आयोजन आरम्भ किया गया. विभिन्न पड़ावों से गुजरते हुए और काशी के आम जन से जुड़ते हुए इस आयोजन ने गंगा तट पर अपना स्थाई आशियाना जमा लिया है. लोकप्रिय कवि सांढ़ बनारसी वर्तमान में इस आयोजन के एक प्रमुख स्तम्भ हैं.
इस 1 अप्रैल को भी यह आयोजन अपने पुरे शबाब पर रहा. कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत दूल्हा-दुल्हन के विवाह के साथ की गई, जिसमें दुल्हे की भूमिका स्त्री पात्र और दुल्हन की भूमिका पुरुष पात्र ने निभाई. दुल्हन की मूंछें होने की शिकायत पर शादी के फ़ौरन बाद ही दोनों का तलाक़ भी करा दिया गया.
पारंपरिक धोबी नृत्य आदि सांस्कृतिक कार्यक्रम के बाद हास्य कवियों ने महामूर्ख मेले का शमा ही बाँध दिया. नेता व पुलिस की शान में इस चुनावी मौसम में कुछ ज्यादा ही कसीदे गढे गए.
कार्यक्रम के दौरान हास्य पत्रिका 'पहली अप्रैल' का लोकार्पण भी किया गया. रहमान की 'जय हो' यहाँ भी छाई रही; जो कि सम्मलेन की थीम भी थी.
अंत में कवि अशोक सुन्दरानी की चंद पंक्तियाँ आपकी नजर-
"देश में मेरे नफरतों का मौसम है,
नफरत की सीढ़ी से सत्ता पाने का सीजन है;
जनता के दर्दो से इनका लेना देना क्या,
इनका तो कुत्ता भी नखरे से करता भोजन है."
Wednesday, April 1, 2009
इतिहास के आईने में 1st अप्रैल
मगर यह समय यह विचार करने का भी है कि क्या पुराने कैलेंडर की तिथि और हमारे नव संवत की तिथि की निकटता और इनपर नए कैलेंडर की वरीयता तथा होली पर मूर्ख सम्मेलन जैसे दृष्टान्त में साम्य कुछ गौर से सोचने की जरुरत महसूस नहीं कराती है!
Tuesday, March 31, 2009
झारखण्ड का प्रकृति पर्व- सरहुल
मुख्यतः संथालों और उरावों द्वारा आयोजित इस पर्व में 'फूल गईल सारे फूल, सरहुल दिना आबे गुईयाँ' जैसे गीतों की ताल पर प्रसिद्द 'सरहुल' नृत्य पर झूमते हुए प्रकृति से अपने जुडाव और आत्मीयता का परिचय देते हैं ये. इस अवसर पर इनके पुजारी जिसे 'पाहन' कहते हैं द्वारा आने वाले समय में मौसम की भविष्यवाणी भी की जाती है. इस वर्ष राज्य में अच्छी बारिश और खेती में समृद्धि की सम्भावना जताई गई है.
एक प्रकार से देखें तो नव वर्ष पर धरती की उर्वरा शक्ति का सम्मान ही है- 'वासंतिक नवरात्र' के ही सामान. ऐसे में इन पारंपरिक त्योहारों और इनके शास्त्रीय स्वरुप में सम्बन्धओं पर एक नए दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता भी महसूस होती है.
Thursday, March 19, 2009
बनारस का 'बुढ़वा मंगल' मेला
Saturday, March 14, 2009
पीड़ा: एक पत्रकार होने की
Tuesday, March 10, 2009
फागुन आयो रे...
वसंत - पंचमी से 'होलिका-दहन' की तैयारी भी शुरू हो जाती है, जो दरिद्रता, बुराई और अधर्म के नाश का प्रतीक है; जिसकी सदबुद्धि 'माँ शारदा' ही तो दे सकती हैं।
थोड़े बदले स्वरुप में कमोबेश हर महाद्वीप और प्रत्येक देश में होली सर्दृश्य त्यौहार की उपस्थिति के बीज हमारे विस्मृत हो चुके अतीत में छुपे हो सकते है. ऐसे में इस त्यौहार की मौलिक भावनाओं को विरूपित होने से बचाने के संकल्प के साथ आइये Let's Play Holi.आप सभी को होली की रंग, उमंग और भंग भरी ढेरों शुभकामनाएं.....
Monday, March 9, 2009
क्या वो कॉमेट 'लुलिन' था?
कल मैं भी एक कॉमेट की तरह ही नवाबों के शहर लखनऊ से गुजरा। प्लान में तो 'तस्लीम' के रजनीश जी से मिलना भी था, जो पूरा न हो सका। मगर सुबह-सुबह एक अद्भुत खगोलीय नज़ारे ने मेरा स्वागत किया। सूर्योदय की लालिमा की शुरुआत के साथ ही (लगभग 6:15 पर) आकाश में मैंने एक 'कॉमेट' को गुजरते देखा। वो तो अपने अजीजों के नींद के ख्याल ने मुझे रोक लिया, वर्ना exitement में मैं उसी समय उन्हें भी इस अवलोकन में शामिल करने वाला था। आस-पास के लोगों का ध्यान मैंने इस और खिंचा मगर आलमबाग में बसों के इंतजार में खड़े लोग इस दिशा में विशेष उत्सुक नहीं थे। तकरीबन 15 मिनट तक मैं इस पिंड की गतिशीलता को देखता रहा। अपने मोबाइल कैमरे से मैंने तस्वीर तो ली मगर वह इतनी प्रभावशाली नहीं थी कि उसे ब्लॉग पर लगा पाता। अब तो हमारी वैज्ञानिक चेतना वाले ब्लौगर्स ही बता सकेंगे कि वो कॉमेट 'लुलिन' था या कोई और; और इसके भारत में दिखने की सम्भावना थी भी या नहीं!